________________
आचार्य हरिभद्र सूरि के ग्रन्थों में ध्यान-साधना
आसक्तियों से रहित विशुद्ध आत्मानुचरण, असंगानुष्ठान है। भौतिक, सांसारिक पदार्थों के साथ वहाँ किसी भी प्रकार का लगाव नहीं रहता। किसी भी आलम्बन के बिना केवल भोग की आराधना की जाती है। इसलिए यह अनालम्बन योग कहा जाता है। साधक अध्यात्म साधना को महापथप्रयाण से योजित करता है । अध्यात्म साधना के महान् अभियान में गतिशीलता महापथप्रयाण है। यह महापथ इसलिए है कि इसका अवलम्बन लेकर अग्रसर होने पर अनागामी पद - वह स्थान जिसे प्राप्त कर वापस नहीं आना पड़ता, जो जन्म-मरण के आवागमन से रहित है, शाश्वत है, प्राप्त हो जाता है। यह वह पद है जिसको योगीजनों ने भिन्न नामों से प्रज्ञापित किया है। सांख्य दर्शन में इसे प्रशान्तवाहिता, बौद्ध दर्शन में विश-भाग परिक्षय तथा शैव दर्शन में ध्रुव, ध्रुवाध्व या शिववर्त्म कहा गया है। 35
-
विद्वानों ने प्रीति अनुष्ठान, भक्ति अनुष्ठान, वचन अनुष्ठान और असंग अनुष्ठान के रूप में अनुष्ठान चार प्रकार का बतलाया है। पहले का आधार विशुद्ध प्रेम है, दूसरा पवित्र भक्ति पर टिका हुआ है। तीसरा आप्त पुरुषों की वाणी पर अवलम्बित है। चौथा अनासक्त भाव के आश्रयण पर अवस्थित है। इनमें असंगानुष्ठान आत्मेतर पदार्थों से अतीत होने के कारण सबसे विलक्षण है ।
खण्ड : पंचम
8. परादृष्टि :
पराशब्द का अर्थ परमोत्कृष्ट या अन्तिम है। इसमें योग का आठवाँ अंग समाधि सिद्ध हो जाता है । 'योगसूत्र' में समाधि के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा गया है कि जब ध्यान में केवल ध्येय मात्र ही प्रतीति का विषय रहता है, चित्त का अपना स्वरूप शून्य सा हो जाता है तब वह ध्यान समाधि के रूप में परिणत हो जाता है । धारणा, ध्यान और समाधि ये तीनों किसी एक ध्येय पदार्थ में जब होते हैं तो उसे संयम कहा जाता है। जब संयम सिद्ध हो जाता है तो प्रज्ञा का, बुद्धि का आलोक या प्रकाश प्राप्त होता है ।
36
समाधि की प्राप्ति साधना की पराकाष्ठा है या चरम लक्ष्य हैं। यहाँ आठों योगांगों के माध्यम से किये जाने वाले उद्यम का पर्यवसान होता है । समाधि सबीज 35. योगदृष्टि समुच्चय श्लोक, 175-176, पृ. 55
36. पातंजल योगसूत्र, 3.5, पृ. 70
Jain Education International
22
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org