________________
आचार्य हरिभद्र सूरि के ग्रन्थों में ध्यान-साधना
अन्वेषणा, गवेषणा में अभिरुचिशील रहता है। जिसका परिणाम उसके लिए बड़ा हितकर श्रेयस्कर होता है । इस दृष्टि में योग के छठे अंग 'धारणा' की सिद्धि हो जाती है । अष्टांगयोग के अगले तीन अंग धारणा, ध्यान और समाधि योग के अन्तरंग या आन्तरिक अंग कहे गये हैं । ये तीनों आत्मा के परम लक्ष्य परिनिर्वाण या मुक्ति को साधने में अन्ततः सहायक सिद्ध होते हैं। धारणा के सम्बन्ध में 'योगसूत्र' में कहा गया है कि प्रथम से पाँचवें तक के योगांगों को जब साधक यथावत् रूप में सिद्ध कर लेता है तब वह चिन्तन-मनन व एकाग्रता के रूप में साधना के सूक्ष्म और आन्तरिक मार्ग का अवलम्बन करता है । समस्त वासनाओं, कामनाओं व इच्छाओं का घर मानव का चित्त है। कोई कितनी ही बाहरी क्रिया-प्रक्रिया, कार्य-कलाप, कर्मकाण्ड साध ले पर जब तक चित्त की विशुद्धि नहीं होती तब तक साधना में सफलता प्राप्त नहीं होती । धारणा की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि बाहर या देह के भीतर किसी एक स्थान पर चित्त को स्थिर करना, एकाग्र करना, ठहराना धारणा है । आकाश, सूर्य, चन्द्र आदि चित्त को स्थिर करने के बाह्य स्थान हैं । देह के भीतर योग सिद्धान्तानुसार परिकल्पित नाभिचक्र, हृदय कमल आदि देह के अन्तः तः स्थित स्थान हैं । इन दोनों पर साधक अभ्यासदशा में मन को टिका सकता है। जब कान्ता दृष्टि प्राप्त हो जाती है तब मन को धारणानुरूप स्थिर करने की योग्यता साधक में आ जाती है।
इस दृष्टि का जो कान्ता नाम दिया गया है उस पर अन्य प्रकार से भी विद्वानों ने चिन्तन किया है । कान्ता का एक अर्थ पतिव्रता महिला भी है । वैसी महिला अपने समस्त गृहकार्य करते हुए भी प्रतिक्षण अपना मन पति में ही लगाये रहती है। इसी प्रकार इस दृष्टि में स्थित साधक का चित्त सांसारिक दायित्ववश अनेक कार्य करते हुए भी शुद्ध धर्म में, अध्यात्म में, आराधना में लीन रहता है।
खण्ड : पंचम
--
यह दृष्टि योगी जनों को बड़ी कान्त, प्रीतिकर, प्रिय या मनोज्ञ लगती है। इस कारण इसे कान्ता नाम से अभिहित किया गया है।
7. प्रभा दृष्टि :
प्रभा दृष्टि में साधक की ऐसी मानसिकता बन जाती है कि उसे ध्यान बहुत प्रिय लगता है । अष्टांग योग का सातवाँ अंग ध्यान उसे सिद्ध हो जाता है । भवरोग उसे पीड़ा नहीं देता, राग, द्वेष एवं मोह रूप दोष त्रय से उत्पन्न आत्मोपपीड़क रोग
20
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org