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________________ आचार्य हरिभद्र सूरि के ग्रन्थों में ध्यान-साधना खण्ड : पंचम जब प्रत्याहार वस्तुत: सिद्ध हो जाता है तब इन्द्रियाँ सर्वथा साधक के वश में हो जाती हैं। उनकी स्वतंत्रता का सर्वथा विलोप हो जाता है।28 स्थिरा दृष्टि के विषय में ज्ञातव्य है कि वह निरतिचार एवं सातिचार दो प्रकार की बतलाई गई है। अतिचार का अर्थ दोष या विघ्न है। जो इससे रहित होती है, वह निरतिचार है। उसमें जो दर्शन-सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है, वह प्रतिपात-पतनरहित होता है, एक रूप में विद्यमान रहता है। सातिचार दृष्टि दोष या विघ्नयुक्त होती है। उसमें होने वाला दर्शन नित्य नहीं होता। क्योंकि उसमें न्यूनता-अधिकता आती रहती है। वह एक जैसा अवस्थित नहीं रहता। ग्रंथकार ने प्रारम्भ में दृष्टियों को जो तृण, गोमय, काष्ठ आदि की अग्नि की दीप्ति से उपमित किया है वहाँ उन्होंने स्थिरादृष्टि को रत्न की प्रभा के सदृश बताया है। रत्न की प्रभा या ज्योति सदा एक सी ही दीप्ति युक्त रहती है, उसी प्रकार अतिचार या दोषशून्य स्थिरा दृष्टि में दर्शन अछिन्न तथा अबाध रहता है, निरन्तर दीप्तिमय रहता है। किन्तु एक स्थिति यह भी है कि यदि रत्न मल आदि से लिप्त हो तो उसकी दीप्ति यत्किंचित् अवरुद्ध होती रहती है, एकसी नहीं रहती, कम-ज्यादा होती रहती है। सातिचार स्थिरादृष्टि में भी ऐसा ही होता रहता है। ऐसा होने के बावजूद जैसे मल युक्त रत्न की प्रभा मूल रूप में मिटती नहीं है, उसकी मौलिक स्थिरता अवस्थित रहती है उसी प्रकार सातिचार स्थिरा दृष्टि में भी दर्शनविषयक ज्योति की न्यूनता-अधिकता तो रहती है, किन्तु मूलत: उसकी स्थिरता विनष्ट नहीं होती। ग्रंथकार ने स्थिरा दृष्टि की विशेषताओं का वर्णन करते हुए कहा है कि इस दृष्टि को प्राप्त सम्यक्त्वी पुरुष के महामोहरूप तमोमय कठोर, कर्कश ग्रन्थि का भेदन हो जाता है, वह ग्रन्थि टूट जाती है। वैसे प्रज्ञाशील सम्यक्त्वी साधकों की समस्त सांसारिक चेष्टाएँ, क्रियाएँ तथा प्रवृत्तियाँ उसी प्रकार अनासक्ति लिये रहती हैं जैसे बालकों की खेल में बनाये गये घरों आदि के प्रति। बालक क्रीड़ा में मिट्टी आदि के घर बनाते हैं, कुछ ही देर बाद उन्हें बिखेर देते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि यह तो क्रीड़ा मात्र है। अतएव उन्हें छिन्न-भिन्न करते समय उन्हें कोई दुःख नहीं होता। सम्यग्दृष्टि साधक सांसारिक कर्म करते हुए भी उनमें आसक्त, लिप्त या प्रतिबद्ध नहीं होते। शास्त्रानुशीलन जनित विवेकयुक्त जागृत साधक जब ऐसी स्थिति प्राप्त कर लेता है तो उसे अपना शरीर, गृह, परिवार, सम्पत्ति आदि बाह्य पदार्थ मृग 28. वही, 2.55 ~~~~~~~~~~~~~~~ 18 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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