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________________ खण्ड : पंचम जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम स्वरूप मात्र का ही अनुभव होता है। उनमें साधक का मन भटकता नहीं, शास्त्रपरिष्कृत बुद्धि का यही फल है। वहाँ साधक ज्ञेय या दृश्य रूप में पदार्थ को केवल देखता है, उनमें प्रवृत्त नहीं होता। इस दृष्टि का नाम जो दीप्रा रखा है वह बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह वह स्थिति है जब अन्त:करण में सद्बोध उदित होने लगता है। अतएव ग्रंथकार ने इस दृष्टि का बहुत ही विस्तार के साथ वर्णन किया है। दार्शनिक दृष्टि से अन्यमतों के सिद्धान्तों को भी उपस्थित करते हुए इस दृष्टि की उपादेयता को प्रकट किया है। 5. स्थिरा दृष्टि : जिसमें स्थैर्य-स्थिरता या टिकाव हो उसे स्थिर कहा जाता है। पहले की चार दृष्टियों में साधक अपने दृष्टिकोण को परिमार्जित एवं परिशोधित करता हुआ जो कुछ प्राप्त करता है वह सब इस दृष्टि में स्थिर हो जाता है। उसे वह सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है, जो फिर विच्छिन्न नहीं होता। योग का पाँचवाँ अंग प्रत्याहार इस दृष्टि में प्राप्त हो जाता है। साधक के चित्त में सद्विवेक जागृत रहता है। अत: उसके योगसाधना मूलक क्रियाकलाप निर्धान्त या निर्दोष होते हैं।26 योगसत्र में प्रत्याहार के सम्बन्ध में लिखा है कि अपने-अपने विषयों के सम्प्रयोग या सम्बन्ध से रहित होने पर इन्द्रियों पर चित्त के स्वरूप में तदाकार या तन्मयसा हो जाना प्रत्याहार है।27 यम, नियम, आसन, प्राणायाम का अभ्यास करने से मन और इन्द्रियों में शुद्धि का संचार होता है। तब साधक उनको बाह्यवृत्तियों से खींच कर, समेट कर, अपने में विलीन करने का अभ्यास करता है। यह प्रत्याहार की अभ्यास - दशा है। जब साधना के समय योगी इन्द्रियों के विषयों का परित्याग कर चित्त को अपने ध्येय में लगाता है उस समय इन्द्रियों का अपने - अपने विषयों में न जाकर चित्त में तदाकारवत् हो जाना प्रत्याहार के सिद्ध होने का लक्षण है। यदि वैसी स्थिति में भी इन्द्रियाँ पूर्वतन अभ्यास या संस्कार के कारण बाह्य विषयों का चित्र उपस्थित करती रहें तो यह जानना चाहिए कि प्रत्याहार अभी घटित नहीं हुआ। 26. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक. 154, पृ. 46 27. पातंजल योगसूत्र, 2.54 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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