SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य हरिभद्र सूरि के ग्रन्थों में ध्यान-साधना कि महामोह रूप दुर्भेध्य कर्मग्रन्थि भिन्न हो जाती है टूट जाती है । समस्त ज्ञेय तत्त्व उसे सर्वथा अधिगत हो जाते हैं । यह सूक्ष्म बोध से फलित होने वाली स्थिति है। 23 ग्रंथकार ने आगे अवेद्य-संवेद्य तथा वेद्य और संवेद्य के रूप में एक दार्शनिक गहन तत्त्व प्रतिपादित किया है, जिसका इन दृष्टियों से विशेष सम्बन्ध है । उन्होंने कहा है कि प्रारम्भ की चार दृष्टियों में वेद्य पद यानी जानने योग्य अभिप्रेत को अनुभव करने की क्षमता का अभाव रहता है। वहाँ वेद्य संवेद्य पद सिद्ध नहीं हो पाता । जैसे आकाश में उड़ते हुए पक्षी की छाया को जल में देखकर कोई जलचर उसे पकड़ना चाहे तो उसके हाथ कुछ नहीं आता उसी प्रकार तत्त्वत: उन दृष्टियों वेद्य-संवेद्य की प्राप्ति नहीं होती । उस दिशा में साधक का प्रयत्न तो अवश्य रहता है किन्तु वह सार्थक्य प्राप्त नहीं करता | 24 खण्ड : पंचम वेद्य-संवेद्य पद के संदर्भ में आगे और कहा है कि वह दीप्रा से उत्तरवर्ती चार दृष्टियों में सिद्ध होता है। जब वह सिद्ध हो जाता है तब उसके अत्यधिक प्रभाव के कारण साधक पापपूर्ण कार्यों में प्रायः प्रवृत्ति नहीं करता । पूर्वार्जित अशुभ कर्मों के कारण कदाचित् पापकार्य में प्रवृत्ति हो भी जाती है तो वह उस साधक में उसी प्रकार टिक नहीं पाती, जिस प्रकार परितप्त लोहे पर पैर टिकाकर नहीं रखा जा सकता। यदि वैसे पर पैर टिक भी जाता है तो व्यक्ति तत्क्षण उसे वहाँ से दूर कर लेता है । उसी प्रकार साधक की ज्ञात-अज्ञात रूप में हिंसादि पापकृत्यों में प्रवृत्ति हो भी जाती है तो वह साधक तत्क्षण जागरूक हो जाता है और उस दुष्प्रवृत्ति में अपने को कदापि टिकाये नहीं रहता।' 25 वेद्य-संवेद्य पद के स्वायत्त हो जाने पर अपाय आदि का निबन्धन हो जाता है । अपाय का अभिप्राय आध्यात्मिक अभ्युदय में विघ्नोत्पादक भोगोपभोग रूप वेद्य या अनुभव करने योग्य पदार्थ उस बुद्धि द्वारा केवल अनुभूत मात्र किये जाते हैं, जो आगमों के अनुशीलन से विशुद्ध है । वहाँ वेद्य पदार्थों का संवेदन, अनुभवन होता है किन्तु उनके प्रति स - रागात्मक भाव उत्पन्न नहीं होता। केवल उन पदार्थों के अपने 23. योगदृष्टि समुच्चय, गा. 66, पृ. 20 24. वही, श्लोक 67 पृ. 21 25. वही, श्लोक. 70, पृ. 22 Jain Education International 16 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy