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खण्ड : पंचम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
इस दृष्टि से युक्त साधक के हृदय में धर्म के प्रति अनन्य आस्था जागृत रहती है । वह यह मानता है कि धर्म ही उसका एक मात्र सुहृद् - मित्र या साथी है। वह ऐसा साथी है जो मरण होने पर भी साथ जाता है। उसके अतिरिक्त जो भी उसे प्राप्त है, वह सब ज्योंही उसका शरीर विनष्ट होता है, सब मिट जाते हैं। ऐसा साधक धर्म को प्राणों से भी प्रिय समझता है ।
खारे जल के त्याग और मधुर जल के संयोग से जैसे भूमि में वप्त बीच उग जाता है, उसी प्रकार तत्त्व श्रवण के परिणामस्वरूप साधक के मन में बोधबीज अंकुरित होने लगता है । सांसारिक भोगोपभोगमय पदार्थ खारे जल के तुल्य हैं । तत्त्व श्रवण मधुर जल के समान है । तत्त्वश्रवण से ही साधकों का आत्मकल्याण सिद्ध होता है। इससे गुरुजन के प्रति भक्ति का आनंदमय भाव प्रबलता पाता है । तत्त्वश्रवण ऐहिक और पारलौकिक दोनों ही दृष्टियों से अत्यन्त उपादेय है।
साधक में जब गुरुभक्ति का अभ्युदय होता है तो उसके प्रभाव से समापत्तिपरमात्मस्वरूप शुद्ध आत्मस्वरूप के ध्यान द्वारा तीर्थंकर के शरीर का अन्तः साक्षात्कार होता है अथवा यह इतनी सात्त्विक दशा है, जिससे तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध हो जाता है। जिसके परिणामस्वरूप वह भावी जीवन में तीर्थंकरत्व प्राप्त करता है जिसका पर्यवसान सिद्धावस्था या मुक्तावस्था में है, जो इस संसार में एक अद्वितीय स्थिति है । जीवन के परम लक्ष्य उसे स्वायत्त करने के वास्तविक साधन, उनका परिपोषण, परिवर्धन, तात्त्विक स्वरूप, उसके फल इत्यादि के परिशीलन - पर्यालोचन आदि द्वारा ज्ञानी पुरुष तत्त्व का यथार्थ निर्णय करते हैं, वेद्य - वेदने योग्य, जानने योग्य या अनुभव योग्य तत्त्व का साक्षात्कार या प्रतीति- अनुभूति सूक्ष्म बोध का रूप है । 22
सूक्ष्मबोध के फल- निष्पत्ति का विश्लेषण करते हुए ग्रंथकार ने लिखा है कि उसके प्राप्त हो जाने पर संसार सागर को पार करने का, कर्म रूपी वज्र या हीरक को विभेद करने का तथा अनन्त धर्मात्मक वस्तुतत्त्व रूप ज्ञेय को समझने का अवसर प्राप्त होता है। क्योंकि यह सब सूक्ष्मबोध द्वारा ही परिज्ञेय है । इनको भलीभाँति समझकर साधक अपने साधनोपक्रम से उत्तरोत्तर गतिशील रहता है तो अन्तत: आवागमन के चक्र से विमुक्त हो जाता है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है 22. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक 59-65, पृ. 18-20
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