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________________ आचार्य हरिभद्र सूरि के ग्रन्थों में ध्यान-साधना खण्ड : पंचम रोका जा सके रोके रहना तथा साथ-ही-साथ यह परीक्षण करते रहना कि वह बाहर आकर कहाँ रुका है, कितने समय तक रुका है और उतने समय तक स्वाभाविक प्राण की कितनी संख्या होती है; इस बाह्यवृत्तिमूलक प्राणायाम को रेचक भी कहा जाता है। आभ्यंतरवृत्तिप्राणायाम में प्राणवायु को देह के भीतर ले जाकर जितने काल तक सुखपूर्वक रोका जा सके, रोके रहना तथा साथ-ही-साथ अनुवीक्षण करते रहना कि आभ्यंतर देश में कहाँ तक जाकर प्राण रुकता है, वहाँ कितने काल तक सुखपूर्वक स्थिर होता है और उतने समय तक प्राणवायु की कितनी संख्या होती है; यह आभ्यंतर प्राणायाम है। इसे पूरक भी कहा जाता है। शरीर के भीतर जाने और बाहर निकलने की प्राणवायु की स्वाभाविक गति है, उसे प्रयत्नपूर्वक बाहर या भीतर निकलने या ले जाने का अभ्यास न कर प्राणवायु स्वभाव से बाहर निकला हो या भीतर गया हो, जहाँ वह हो वहाँ उसकी गति को स्तंभित कर देना, अवरुद्ध कर देना तथा यह परीक्षण करते रहना कि वह किस स्थान में, कितने समय तक सुखपूर्वक रुका रहता है। इस समय में प्राणवायु की स्वाभाविक गति की कितनी संख्या होती है यह भी देखते रहना होता है। यह स्तंभवृत्ति प्राणायाम है, इसे कुंभक भी कहा जाता है। यह भी अभ्यास के परिणामस्वरूप दीर्घ या सूक्ष्म होता है। प्राणायाम सिद्ध होने के साथ-साथ इस दृष्टि में चित्त में सहज ही प्रशान्त भाव उदित होता रहता है कि साधक का चित्त योग में से उठता नहीं, हटता नहीं, दूर नहीं जाता अर्थात् उसकी स्थिरता निष्पन्न होती जाती है। साधक तत्त्वज्ञान के श्रवण में समुद्यत रहता है। उसे वैसे प्रसंग प्राप्त होते रहते हैं। इतना अवश्य है कि तब तक साधक का बोध सूक्ष्मता प्राप्त नहीं कर पाता। वह सामान्य या स्थूल रूप लिये रहता है। __ प्राणायाम के सन्दर्भ में जैनदृष्टि से एक विशेष चिन्तन और भी है। वह केवल प्राणवायु के रेचक, पूरक और कुंभक तक ही सीमित नहीं माना जाना चाहिए। उसका एक आध्यात्मिक रूप भी है। बाह्यभाव या परभाव के रेचक, दूसरे शब्दों में बहिरात्मभाव को अपने में से बाहर निकालना, अन्तरात्मभाव या आत्मस्वरूपानुप्रत्यय को अपने भीतर ले जाना, तद्गर्भित चिन्तन को अपने में स्थिर किये रहना भाव प्राणायाम है जो साधक के आध्यात्मिक उत्थान में वस्तुत: बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। 21. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक. 57, पृ. 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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