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खण्ड : पंचम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
भूमि ऐसी है जहाँ साधक के व्यक्तित्व में निर्मलता, सुकुमारता एवं सौम्यता आ जाती है। उसे सत्पुरुषों का सत्संग प्राप्त होने का सौभाग्य मिलता रहता है और वे उनके सान्निध्य से वैसी सत् शिक्षा प्राप्त करते हैं जो उन्हें साधनापथ पर आगे बढ़ने में स्फूर्तिशील बनाती है। 2. तारा दृष्टि :
__ तारा मित्रा से अगला कदम है। मित्रा में सत् श्रद्धानोन्मुख बोध की मन्दता का जो उल्लेख हुआ है, वह मन्दता इसमें मिटने लगती है। कुछ - कुछ स्पप्टता आने लगती है, योग का दूसरा नियम इसमें सिद्ध हो जाता है। जो प्रवृत्तियाँ आत्मा के लिए कल्याणकारिणी हैं, उनका अनुवर्तन करने में उद्वेग नहीं रहता, उत्साह बना रहता है तथा तत्त्वजिज्ञासा उत्पन्न होती है।13
महर्षि पतंजलि ने शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा परमात्म-चिन्तन को नियम कहा है। ये गुण यमों को पुष्ट करते हैं।14
शौच का अभिप्राय कायिक और मानसिक शुद्धि से है। सन्तोष से जीवन में शान्ति रहती है। तप, स्वाध्याय तथा परमात्म-चिन्तन साधक की ऊर्ध्वगामिनी ऊर्जा को शक्ति प्रदान करते हैं। साधनारत व्यक्ति में मानसिक निर्मलता का उभार आने पर उत्साह की मन्दता आ जाती है। वैसा होने से साधना की गतिशीलता बाधित होती है। तारा दृष्टि प्राप्त होने पर साधक की यह दुर्बलता मिट जाती है और वह आत्मतत्त्व, धर्मतत्त्व आदि को जानने में बड़ी उत्सुकता लिये रहता है। तारा दृष्टि में प्रतिफलित होने वाली अन्यान्य स्थितियों का उद्घाटन करते हुए आचार्यश्री ने लिखा है कि साधक के मन में सहज ही योगविषयक चर्चाओं में अधिक अखण्डित प्रीति या अभिरुचि बनी रहती है। योग विषयक योग निष्णात योगिजनों का वह नियमित रूप में सम्मान करता है। वह उनकी यथा विचार-विमर्श, चिन्तन-मनन में आनंद प्राप्त होता है। शुद्ध शक्ति सेवा करता है। वह उनका अनुग्रह प्राप्त करता है जिससे योग-साधना में विकास करने में उसे सफलता मिलती है। महान् योगियों की सेवा करने से श्रद्धा का उन्नयन होता है। आत्मा का हित या श्रेयस् सिद्ध होता है। क्षुद्र उपद्रव सहज ही नष्ट हो जाते हैं। 15 13. वही, श्लोक - 41, पृ. 12-13 14. पातञ्जल योग सूत्र - 2.32 15. योगदृष्टि समु. श्लोक - 42-43, पृ. 13 wwwwwwwwwwwwwww 11 ~~~~~~~~~~~~~~~
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