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________________ आचार्य हरिभद्र सूरि के ग्रन्थों में ध्यान-साधना - खण्ड : पंचम - ~ - ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ उन्होंने आगे लिखा है कि जिन मनुष्यों का भावमल, आन्तरिक मालिन्य अत्यन्त क्षीण हो जाता है उनमें योगबीज भी अचल होते हैं। जिन मनुष्यों की चेतना अव्यक्त होती है वे योगबीजों को प्राप्त नहीं कर पाते क्योंकि उन्हें प्राप्त करना बड़ा महत्त्वपूर्ण कार्य है। अंतिम पुद्गलपरावर्तन में भावमल का नाश हो जाता है। जिनके ऐसा सिद्ध हो जाता है उनमें दुःखित प्राणियों के प्रति, अत्यधिक दयालुता, गुणीजनों के प्रति अमत्सरता, सभी जनों के प्रति समुचित शिष्ट- व्यवहार, सेवा का उदात्त भाव सहज ही प्रकट होता है। - इस प्रकार के सौम्य स्वरूप या स्वभाव युक्त उत्तम पुरुषों के अवञ्चकोदय के कारण, शुभ निमित्तों के कारण संयोग समुपलब्ध होता रहता है।1 अवञ्चकोदय का विश्लेषण करते हुए आचार्यश्री लिखते हैं कि साधकों में योगावञ्चक, क्रियावञ्चक, और फलावञ्चक के रूप में तीन अवञ्चक प्राप्त होते हैं। ये अभिवांछित या उद्दिष्ट क्रिया पर साधक को पहुँचा देते हैं।12 जो कभी वञ्चना, प्रवञ्चना न करे, कभी विपरीत न जाये, यथार्थ स्थान पर जाने से न चूके, बाण की ज्यों सीधा अपने लक्ष्य पर पहुँचे उसे अवञ्चक कहा जाता है। जो सद्गुरु का सुयोग प्राप्त होने में वञ्चना न करे, बाधा न करे, उसे योगावञ्चक कहा जाता है। जिन्हें यह प्राप्त होता है उन्हें सत्पुरुषों का सान्निध्य प्राप्त होता जाता है। जो सत्पुरुषों के नमन, वन्दन, सत्कार, परिचर्या आदि शुभ क्रिया में वञ्चना, बाधा न करे उसे क्रियावंचक कहा जाता है तथा जिनके साथ वह होता है उन्हें ऐसे पुरुषों का सुयोग मिलता जाता है। जो ऐसे उत्तम कार्यों के उत्तम फल को प्राप्त कराने में बाधक न हो, साधक हो, उसे फलावञ्चक कहा जाता है। जिनका आन्तरिक मालिन्य प्रक्षालित हो जाता है, जो निर्मल हो जाते हैं तथा यथोचित कालावधि प्राप्त कर लेते हैं, उन्हें योगबीज प्राप्त होते हैं और साथ - ही - साथ वे अवञ्चक त्रय से भी लाभान्वित होते हैं। ग्रन्थकार ने तात्त्विक शैली में यहाँ यह बतलाया है कि योगोत्थान की पहली 11. वही, श्लोक - 30-33, पृ. 9-10 12. वही, श्लोक - 34, पृ. 10 mmmmmmmmmmmmmmm 10 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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