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खण्ड : पंचम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
प्रवृत्ति के रूप में परिणत हो जाती है। जब साधक अपने इच्छानुरूप यमों का अनुसरण करने लगता है तब उसकी आराधना प्रवृत्ति यम शब्द द्वारा अभिहित होती है।
किसी काम में व्यक्ति प्रवृत्त तो हो जाता है किन्तु उस पर जब तक स्थिर नहीं होता, तब तक यह आशंका बनी रहती है कि न जाने यह प्रवृत्ति कब तक गतिशील रहे? जब दीर्घकालीन दृढ़ अभ्यास द्वारा वह प्रवृत्ति स्थिरता पा लेती है तब उससे विचलित या च्युत होने की आशंका नहीं रहती है वैसी दशा को स्थिरयम कहा गया है। यदि साधक में स्थिरता बनी रहे, वह स्थिरतापूर्वक यमों के परिपालन में सन्नद्ध रहे, तो वह उन्हें सिद्ध कर लेता है, फिर वे कभी उससे छूटते नहीं। उसके जीवन में सहजता प्राप्त कर लेते हैं।
आचार्य हरिभद्र आगे लिखते हैं कि योग के वेत्ता यह भलीभाँति जानते हैं कि मित्रादृष्टि में स्थित साधक के लिए यह वांछनीय है कि वह मोक्षसिद्धि के अमोघ हेतु स्वरूप योगबीजों को स्वीकार करे।
अर्हतों के प्रति चित्त में शुभ, उत्तम भाव तथा मानसिक, वाचिक, कायिक शुद्धिपूर्वक प्रणमन आदि को अत्यन्त उत्कृष्ट योगबीज कहा गया है। ये योगबीज जीवन में कब निष्पन्न होते हैं, निपजते हैं, इस सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है कि बीजसिद्धि आदि की दृष्टि से आत्मा की विशिष्ट योग्यता के परिपाक के परिणामस्वरूप चरम पुद्गलपरावर्त के समय में ही कुशल सात्त्विक सत्श्रद्धामय योग भी संशुद्ध होते हैं, उत्पन्न होते हैं।10
जैनदर्शन के अनुसार जीव द्वारा ग्रहण किये जाते, त्यागे जाते लोकव्याप्त समस्त पुद्गलों का जब एक बार संस्पर्श या उपयोग हो जाता है तो उसे एक पुद्गलपरावर्तन कहा जाता है। इस क्रम का अन्तिम आवर्त, जिसका भोग कर चुकने पर जीव को पुन: इस भवचक्र में नहीं आना पड़ता, चरम पुद्गलपरावर्तन कहा जाता है। यहाँ योगबीजों के संशुद्ध होने की जो बात कही गयी है वह तब घटित होती है जब साधक चरम पुद्गलपरावर्तन की स्थिति में होता है।
9. वही, श्लोक - 22-24, पृ. 7 10. वही, श्लोक - 24, पृ. 7
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