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________________ खण्ड : पंचम प्रकार का है। विभिन्न स्थितियाँ उनके देखने - सोचने आदि में न्यूनता अधिकता लाती रहती है। इसी के अनुसार ओघदृष्टि के भी अनेकानेक रूप घटित होते हैं । सांसारिक या भौतिक जीवन में रचे- पचे लोगों में जितनी भिन्नता है उनकी चिन्तन- धाराओं में भी अनेकविध तरतमताओं के साथ विविधतायें हैं । 1 ओदृष्टि में जो जीव पड़े रहते हैं, वे जब तक ओघदृष्टि से निकलते नहीं हैं तब तक अवन्नति के गर्त में ही पड़े रहते हैं । इतना ही नहीं, उनके पतन का क्रम उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। आचार्य हरिभद्र पतित जीवों को एक नया प्रकाशपूर्ण मार्गदर्शन देने हेतु योगदृष्टि का विधान करते हैं । जब तक जीव ओघदृष्टि से निकलकर योगदृष्टि में नहीं आते, तब तक कदापि उनका कल्याण नहीं होता। योगदृष्टियाँ आत्मा को उसके शुद्ध स्वरूप के साथ योजित करती हैं। जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम योगदृष्टियों के स्वरूप का विवेचन करते हुए उन्होंने लिखा है कि उत्तम द्रष्टा की दृष्टि अपनी बोधात्मक ज्योति के वैशद्य के विकास की अपेक्षा तृण, गोमय तथा काष्ठ की अग्नि के कण, दीपक, रत्न, तारे, सूर्य तथा चन्द्र की आभा के तुल्य क्रमश: आठ दृष्टियों के विकास के रूप में प्रस्फुटित होती है । " 6 - जिस प्रकार घास, कण्डे तथा काठ की अग्नि के कण क्रमशः प्रदीप्त होते हैं उनकी ज्योति आगे से आगे वृद्धिंगत होती है, उनसे आगे क्रमश: दीपक से लेकर चन्द्र तक की आभा अधिक से अधिक उद्दीप्त होती जाती है; इसी क्रम से दृष्टियों का आत्मोकर्ष की अपेक्षा उन्नयन होता जाता है। उन्होंने आगे बताया है कि जो साधक यम आदि योग के अंगों के अभ्यासी होते हैं, खेद, उद्वेग आदि दोषों से रहित होते हैं, जिनमें औरों के प्रति द्वेष नहीं होता, सतत्त्वों के प्रति जिज्ञासा का भाव होता है ऐसे साधक योग दृष्टियों को साधने के अधिकारी होते हैं। 7 आचार्य हरिभद्र के समक्ष महर्षि पतंजलि के यम आदि आठ योगांग थे, उनके समक्ष पूर्वतन भगवद्द तथा भदन्तभास्कर नामक दो आचार्यों के योग विषयक आठ-आठ तत्त्व भी थे। ऐसा प्रतीत होता है कि कभी इन दोनों आचार्यों के ये आठआठ तत्त्व साधना के क्षेत्र में मान्य और आदेय रहे हों। अतएव आचार्य हरिभद्र प्रत्येक 6. 7. वही, श्लोक 15 पृ. 5 वही, श्लोक - 16 पृ. 5 Jain Education International 7 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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