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आचार्य हरिभद्र सूरि के ग्रन्थों में ध्यान-साधना
खण्ड : पंचम
- इस विवेचन में आचार्य हरिभद्र ने अत्यन्त सूक्ष्म तत्त्व - दर्शन की चर्चा की है। सामान्यत: जैनदर्शन में योग शब्द मानसिक, वाचिक, कायिक कर्मों या प्रवृत्तियों के लिए प्रयुक्त होता है। यहाँ इसका प्रयोग चित्तवृत्तियों के परिमार्जन के साथ आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्राप्त करने के अर्थ में है। आचार्य हरिभद्र दार्शनिक भाषा में कहते हैं कि जब समस्त योगों का, प्रवृत्तियों का अभाव हो जाता है तो परमोत्कृष्ट योग सिद्ध होता है। उसके सिद्ध होने का तात्पर्य है कि योगी को अब वह सब प्राप्त हो गया है जो उसका प्राप्य या लक्ष्य रहा है। सामर्थ्य योग की अन्तिम परिणति परम पद की उपलब्धि में होती है।
. आचार्य हरिभद्र सूरि ने आठ योगदृष्टियों की परिकल्पना की है जो निम्नांकित हैं (1)मित्रा (2) तारा (3) बला (4) दीप्रा (5) स्थिरा (6) कान्ता (7) प्रभा तथा (8) परा। ये दृष्टियाँ उन्नत होते आत्मा के विशुद्धिक्रम पर आधारित हैं। उनकी मान्यता है कि साधना में दृष्टि वा दर्शन का सबसे अधिक महत्त्व है। जब तक दृष्टि का परिष्कार नहीं होता तब तक साधक के द्वारा अनुष्ठित किये जाने वाले उपक्रम अभीष्ट फलप्रद सिद्ध नहीं हो सकते। उन्होंने सबसे पहले दृष्टि का ओघदृष्टि एवं योगदृष्टि के रूप में विभाजन किया। ओघ का अर्थ प्रवाह है। संसारप्रवाह में पतित योगप्रवृत्ति यदि अध्यात्मोन्मुख नहीं हो, तो परोन्मुख ही बनी रहती है। उसको उन्होंने ओघदृष्टि के नाम से विख्यात किया है।
उन्होंने तरतमता के आधार पर ओघदृष्टि के वैविध्यपूर्ण स्वरूप का विवेचन करते हुए लिखा है कि मेघों से परिपूर्ण रात्रि और उनसे रहित रात्रि, मेघयुक्त दिवस
और मेघरहित दिवस, ग्रहपीड़ित दर्शक और ग्रहबाधा रहित दर्शक, बाल या अवयस्क दर्शक व वयस्क दर्शक, रुग्ण नेत्र आदि से उपहृत या पीड़ित दर्शक, अनुपहृत या अपीड़ित दर्शक आदि इन अपेक्षाओं से, भिन्न-भिन्न कारणों से जैसे वस्तु के देखने में तरतमता या न्यूनाधिकता होती है उसी प्रकार जागतिक प्रवाह में निपतित दृष्टि भिन्नभिन्न प्रकार की होती है।
आचार्य ने यहाँ ओघदृष्टि की विविधता का जो विश्लेषण किया है, वह बड़ा ही सूक्ष्म है। संसार में अनेक प्रकार के लोग हैं। उनके देखने-सोचने का क्रम अनेक 5. योगदृष्टि समुच्चय श्लोक - 14, पृ. 4
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