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खण्ड : पंचम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
सूक्ष्म तात्त्विक स्वरूप केवल शास्त्रों के माध्यम से पूर्णत: नहीं जान पाते।
केवल शास्त्र द्वारा साक्षात् अनुभूति या इन्द्रियनिरपेक्ष ज्ञान का उद्भव सम्भव नहीं है। उससे सर्वज्ञता, परम सिद्धि की प्राप्ति नहीं हो पाती है। अतएव प्रातिभ ज्ञान अर्थात् असाधारण आत्मशक्ति से समुत्पन्न ज्ञान, आत्मानुभव या स्व संवेदन के अद्भुत प्रकाश तथा अनन्य तत्त्व चिन्तनात्मक दीप्ति से युक्त सामर्थ्य योग ही सर्वज्ञत्व एवं आत्मपूर्णता का वस्तुत: हेतु है। सामर्थ्य योग के सूक्ष्म स्वरूप या विशिष्टता का शब्दों द्वारा कथन नहीं किया जा सकता। सामर्थ्ययोग-धर्मसंन्यास और योगसंन्यास के रूप में दो प्रकार का है। कर्मों के क्षयोपशम से जो स्थिति उत्पन्न होती है वह धर्मसंन्यास है और शरीर आदि की प्रवृत्तियों का निरोध योग संन्यास है।
1. धर्मसंन्यास योग:
पहला 'धर्मसंन्यास योग' द्वितीय अपूर्वकरण अर्थात् ग्रन्थिभेद रूप प्रथम अपूर्वकरण के पश्चात् क्षपक श्रेणी-आरोहण में सिद्ध होता है अर्थात् साधक जब क्षपकश्रेणी में आरोहण करता है उस समय अत्यधिक तीव्र आत्मपराक्रम का उद्भव होता है। तब वह उपशम श्रेणी से आरोहण न कर क्षपक श्रेणी से आरोहण करता है। अपूर्वकरण आन्तरिक सामर्थ्य की प्रबलता लिये होता है। प्रबलता का पहला रूप ग्रन्थिभेद में परिणत होता है और दूसरा रूप क्षपकश्रेणी से यात्रा के रूप में प्रगट होता है। यह प्रक्रिया सामर्थ्ययोग के अन्तर्गत आती है क्योंकि इसमें आत्मा के पराक्रम या सामर्थ्य का प्रकटन होता है।
व्यागसन्यास:
सामर्थ्ययोग का दूसरा भेद 'योगसंन्यास' आयोज्य कर्म के पश्चात् घटित होता है। जब वेदनीय कर्मों की स्थिति आयुष्य कर्म की अपेक्षा अधिक होती है तब सर्वज्ञ प्रभु उनका सामंजस्य करने हेतु कर्मों की उदीरणा करते हैं, जिससे समुद्घात द्वारा वे शीघ्र क्षीण किये जा सकें, इसे आयोज्य कर्म कहा जाता है। ऐसा होने से आगे योगसंन्यास सिद्ध होता है। इससे साधक अयोगावस्था पा लेता है। यह अवस्था ही सर्वोत्कृष्ट योग है क्योंकि यह आत्मा को मोक्ष से योजित करती है। 4. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक. 5-11 पृ. 2-3 ~~mmmmmmmmmmmmm 5 ~~~~~~~~~~~~~~~
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