________________
आचार्य हरिभद्र सूरि के ग्रन्थों में ध्यान-साधना
खण्ड : पंचम
रहित होकर श्रद्धापूर्वक आगमज्ञानपूर्वक शास्त्र में निर्दिष्ट विधि के अनुरूप योग की आराधना करता है, उसका योग अविकल-अखण्ड रूप से गतिशील रहता है, उसे शास्त्रयोग कहा जाता है।
यहाँ ग्रंथकार के विवेचन का आशय यह है कि वह साधक जिसके मन में योगाराधना की तीव्र इच्छा होती है और इच्छानुरूप वह जैसा उससे हो पाता है, योग की आराधना करता है, किन्तु जब तक शास्त्रीय दृष्टि साधक को प्राप्त नहीं होती है तब तक आराधना में समीचीनता नहीं आ पाती; वह व्यवस्थित रूप से नहीं सध पाती। उसमें विघ्न, प्रत्यवाय आदि आते रहते हैं इसलिए साधक की तीव्र उत्कंठा शास्त्रज्ञान को अधिगत करने का मोड़ लेती है। वह अत्यन्त श्रद्धापूर्वक शास्त्रों में प्रतिपादित अध्यात्मयोग विषयक तत्त्वों को अधिगत करता है। उसका बोध तीव्रता लेता है वह योगाभ्यास में प्रमाद नहीं करता। सावधानी या जागरूकता के साथ अपनी आराधना में अग्रसर होता जाता है। तब उसके द्वारा साध्यमान योग अविकलावस्था पा लेता है अर्थात् वह यथावत् रूप में गतिशील रहता है।
ग्रंथकार ने साधना में शास्त्राध्ययन को भी बहुत उपयोगी माना है क्योंकि शास्त्रों में ज्ञानीजन द्वारा वह मार्ग बताया गया है जो साधक के अभ्यास को बल देता है। सामर्थ्य योग :
सामर्थ्य योग के स्वरूप का आख्यान करते हुए उन्होंने लिखा है कि शास्त्रों में जिनके प्रकटन का मार्ग बतलाया है, अध्यवसाय द्वारा जब उस अन्त:शक्ति का उद्रेक होता है, जागरण होता है, वह शक्ति प्रबलता पाती है तो साधक की अन्तरात्मा में उत्कृष्ट कोटि का योग प्रतिफलित होता है। जिसका विषय शास्त्र से भी अतिक्रान्त है अर्थात् वह ऐसी आध्यात्मिक अनुभूति से जुड़ा होता है जो शास्त्राध्ययन से प्राप्त नहीं होती, अनुभव से प्राप्त होती है क्योंकि आत्मा में अपरिमित पराक्रम और सामर्थ्य है। जब उसके आवरण विच्छिन्न हो जाते हैं तो वह सामर्थ्य प्रकट हो जाता है। उस सामर्थ्य द्वारा एक विलक्षण योग की सिद्धि होती है। आचार्य हरिभद्र के अनुसार वही सामर्थ्य योग है। उन्होंने इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए आगे कहा है कि जिन कारणों से सिद्धि, चरम लक्ष्य या परम पद की प्राप्ति होती है, योगीजन उनका 3. वही, श्लोक - 4, पृ. 2 ~~~~~~~~~~~~~~~ 4 ~~~~~~~~~~~~~~
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org