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________________ आचार्य उमास्वाति, जिनभद्र गणि और पूज्यपाद के ग्रन्थों में ध्यानविमर्श खण्ड : चतुर्थ प्रिय वस्तु का वियोग हो जाने पर उसकी प्राप्ति के लिए सतत चिन्ता करना तृतीय आर्तध्यान है।15 अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति के लिए संकल्परत रहना, तदनुरूप चिंतन करना चौथा आर्तध्यान है।16 आर्त्त शब्द से तात्पर्य है पीड़ा, कष्ट जिसके चिन्तन से दुःख उत्पन्न होता है। जब व्यक्ति बहत पीड़ा या कष्ट में होता है तो उसका चिन्तन भी उसी के आसपास केन्द्रित हो जाता है। आचार्य उमास्वाति ने जैसा प्रतिपादित किया है उसके अनुसार अनिष्ट का संयोग हो, इष्ट का वियोग हो, शरीर या मन में रोगादि पीड़ा हो, भोगाकांक्षा में जब चित्त निरन्तर अस्थिर और अशान्त रहता हो तब मन की, मानसिक चिन्तन की ऐसी स्थिति बनती है। ये चारों ध्यान अज्ञानमूलक, तीव्र पुरुषार्थजन्य, पापप्रयोगाधिष्ठान, नाना संकल्पों से आकुल, विषय-तृष्णा से परिव्याप्त, धर्माश्रयपरित्यागी, कषाय स्थानों से युक्त, अशान्तिवर्धक, अकुशल कर्म के कारण, कटुक फल वाले, असाता के बन्धक और तिर्यंच गति में ले जाने वाले हैं। ये चारों आर्त्तध्यान कृष्ण, नील और कापोतलेश्या वालों के होते हैं। यह ध्यान प्रथम छह गुणस्थान तक के जीवों के होता है।17 प्रमत्तसंयत गुणस्थान में प्रमाद के तीव्र उद्रेक से निदान को छोड़कर शेष तीन आर्तध्यान कभीकभी हो सकते हैं। रौद्र ध्यान : 1. हिंसा, 2. असत्य, 3. चोरी और 4. विषयरक्षण के लिए सतत चिन्ता करना रौद्रध्यान है, जो अविरति गुणस्थान और देशविरतगुणस्थान में संभव है।18 जब कोई व्यक्ति किसी प्रकार की हिंसा करने को तत्पर होता है तो उसका मन अत्यंत क्रूर और कठोर बन जाता है और वह एक मात्र उसी हिंसामूलक ध्यान 15. वही, 9.33 16. वही, 9.34 17. वही, 9.35 18. वही, 9.36 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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