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खण्ड : चतुर्थ
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
__ आर्त और रौद्र अशुभ बंध के हेतु हैं। इसलिए वे अनुपादेय एवं अश्रेयस्कर हैं। पर ध्यान की कोटि में तो आते ही है, क्योंकि मन की एकाग्रता चाहे किसी भी कारण से हो, वहाँ है।
आर्त और रौद्र ध्यान जब अनुपादेय एवं अश्रेयस्कर हैं तो उनके संबंध में विशेष जानने की क्या आवश्यकता है ? यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है, किन्तु यहाँ विशेष रूप से समझने की बात यह है कि साधारणत: मनुष्य दुर्बल है। अशुभ या विकार की ओर उसका मन जल्दी से चला जाता है, सत् या शुभ की दिशा में आगे बढ़ने में, तन्मूलक चिंतन में धर्मध्यान में प्रवृत्त होने हेतु बड़ा अध्यवसाय और प्रयत्न पुरुषार्थ करना पड़ता है। अशुभमूलक आर्त-रौद्रध्यान से वह बचे इसलिए यह आवश्यक है कि वह जाने तो सही कि वे क्या हैं? सिद्धान्तत: जगत् में सभी पदार्थ, सभी बातें ज्ञेय-ज्ञातव्य या जानने योग्य हैं। ज्ञात पदार्थों या विषयों में जो हेय हैं उनका परित्याग किया जाए तथा जो उपादेय हैं, उन्हें ग्रहण किया जाए। यही कारण है कि शास्त्रों में आर्त और रौद्रध्यान का यथाप्रसंग वर्णन उपलब्ध है।
अतएव प्रशस्त से पूर्व अप्रशस्त को जानना जरूरी है। अप्रशस्त की उपस्थिति में प्रशस्त का होना असंभव है। अप्रशस्त मन की अशुभ में एकाग्रता है। मन जबतब अशुभ में एकाग्र रहेगा, तब तक शुभ में आ ही नहीं सकेगा। प्रशस्त ध्यान प्रकाश है, अप्रशस्त ध्यान अंधकार है। आर्तध्यान :
आचार्य उमास्वाति ने आर्तध्यान के उत्पन्न होने के चार कारण बताये हैं।12 तदनुसार-अप्रिय (व्यक्ति, वस्तु आदि) के संयोग होने पर उनके वियोग के लिए सतत चिन्ता करना पहला आर्तध्यान है।13।
दु:ख या कष्ट आने पर उसके दूर होने की निरन्तर चिंता करना दूसरा आर्तध्यान है।14
12. भगवती सूत्र श. 25.6.238 13. तत्त्वार्थ सूत्र 9.31 14. वही, 9.32
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