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आचार्य उमास्वाति, जिनभद्र गणि और पूज्यपाद के ग्रन्थों में ध्यानविमर्श
खण्ड : चतुर्थ
हैं जिनका शरीर पुष्ट एवं बलवान् हो एवं जो सात्त्विक वृत्तियों की ओर उन्मुख हों । शरीर की बलशालिता एवं मनोवृत्तियों की कोटि ध्यान की कोटि एवं योग्यता के मापदण्ड हैं।
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ध्यान के भेद और उनका फल :
तत्त्वार्थसूत्र में आचार्यउमास्वाति ने ध्यान के चार भेद स्वीकार किये हैं । 10 1. आर्त्तध्यान 2. रौद्रध्यान 3. धर्मध्यान और 4. शुक्लध्यान । अर्दन अर्ति शब्द का अर्थ चिन्ता, पीड़ा, शोक, दुःख, कष्ट आदि है । इनके संबंध से जो ध्यान होता है, वह आर्त्तध्यान है ।
1. आर्त्तध्यान :
रुलाने वाले को रुद्र - क्रूर कहते हैं, रुद्र का कर्म या कषायों से अतिरंजित जीव के क्रूर भाव रौद्र हैं और इनसे संबंधित तथा इनमें हर्षित होने वाली चित्त की वृत्ति रौद्रध्यान है ।
2. रौद्रध्यान :
3. धर्मध्यान :
4. शुक्लध्यान : जिसके द्वारा कषायों का, कर्मों का क्षय हो, संसार का नाश हो, चतुर्गति में परिभ्रमण समाप्त हो ऐसी आत्मपरिणति शुक्लध्यान है अर्थात् जैसे मैल हट जाने
वस्त्र शुचि होकर शुक्ल कहलाता है उसी तरह निर्मल गुण रूप आत्मपरिणति भी शुक्ल कही जाती है।
धर्म युक्त ध्यान अर्थात् चित्त ( मन ) की जिस वृत्ति में शुद्ध धर्म की भावना का विच्छेद न पाया जाय, वह धर्मध्यान है ।
प्रशस्त और अप्रशस्त ध्यान :
प्रथम दो ध्यान अपुण्यास्रव के कारण अप्रशस्त ध्यान हैं, हेय हैं, त्याज्य हैं और शेष दो ध्यान कर्मनिर्दहन में समर्थ होने से सुध्यान हैं, प्रशस्त हैं और उपादेय ( ग्राह्य) हैं। 1
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10. तत्त्वार्थ सूत्र 9.29 11. वही, 9.30
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