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________________ खण्ड : चतुर्थ में ध्यान संभव नहीं है । इसके लिए कुछ विशिष्ट आसन आवश्यक हैं। इन आसनों को विशिष्ट समय तक गृहीत किये रहने का अभ्यास चाहिए। यह अभ्यास केवल वे ही कर सकते हैं जिनके समुचित वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम है। इन आसनों के लिये शरीर स्वस्थ और सबल होना चाहिए। इसलिए शास्त्रों में उसी को ध्यान ICT अधिकारी बताया गया है जिनके शरीर का अस्थिबन्ध, स्नायुबन्ध एवं नाड़ीबन्धमूलक संहनन उत्तम कोटि का हो । चरम आध्यात्मिक विकास की दशा केवल असामान्य बलशाली शरीर से ही प्राप्त होती है। जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम -- सामान्य मनुष्य के संहनन पाँचवीं एवं छठी श्रेणी के होते हैं। आसन एवं प्राणायाम के अभ्यास से इनमें परिवर्तन संभव होता है क्योंकि इनसे शरीर की अन्तरंग ऊर्जा बढ़ जाती है। इससे चौथी व तीसरी संहनन श्रेणी में पहुँचकर ध्यान के अधिकारी हो सकते हैं। संहनन की उत्तमता के मानदण्ड से यह स्पष्ट है कि दिगम्बर परम्परा ध्यान की प्रक्रिया को अधिक कठोर मानती है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा ध्यान की प्रक्रिया को अधिक व्यापक और प्रभावशाली बनाने की ओर अग्रसर रही है । गुणस्थानों का आधार : संहनन की विशेषता के अतिरिक्त आत्मिक विकास के चरणों ( गुणस्थानों) के आधार पर भी शास्त्रों में ध्याता को अभिलक्षित किया गया है। कुमार कवि ने आरंभक, ध्याननिष्ठ एवं निष्पन्न योगी के रूप में ध्याताओं की तीन कोटियाँ बतायी हैं । तत्त्वार्थसूत्रकार की मान्यता से धर्म्यध्यान चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सप्तम गुणस्थान तक होता है और शुक्लध्यान अष्टम गुणस्थान से प्रारम्भ होकर चतुर्दश गुणस्थान तक चलता है। शुक्लध्यान का पहला भेद - पृथक्त्ववितर्क विचार आठवें से ग्यारहवें गुणस्थान तक और दूसरा भेद एकत्ववितर्क अविचार बारहवें गुणस्थान में होता है । तीसरा भेद सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती तेरहवें गुणस्थान के अन्त में होता है और चौथा भेद-व्युपरत क्रियानिवर्ती चौदहवें गुणस्थान में होता है। प्रथम भेद के द्वारा मोहनीय कर्म का उपशम अथवा क्षय होता है। दूसरे भेद के द्वारा प्रमुख रूप से तीन घातिया कर्मों का क्षय होता है। तीसरे भेद के द्वारा सत्तास्थित कर्मों की सातिशय निर्जरा होती है और चौथे भेद के द्वारा समस्त कर्मों का क्षय होकर मोक्ष प्राप्त होता है। इस प्रकार ध्यान के अधिकारी ऐसे सभी सामान्य एवं साधु व्यक्ति हो सकते 11 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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