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________________ आचार्य उमास्वाति, जिनभद्र गणि और पूज्यपाद के ग्रन्थों में ध्यानविमर्श खण्ड : चतुर्थ एक ही ध्यान रहने से इन्द्रियों का उपघात ही हो जायेगा। अत: ध्यान को अन्तर्मुहूर्त से अधिक काल तक बढ़ाना कठिन है। ‘एक दिवस, एक अहोरात्र अथवा उससे अधिक समय तक ध्यान किया' - इस कथन का अभिप्राय इतना ही है कि उतने समय तक ध्यान का प्रवाह चलता रहा। किसी एक आलम्बन का एक बार ध्यान करके पुन: उसी आलम्बन का कुछ रूपान्तर से या दूसरे ही आलम्बन का ध्यान किया जाता है और पुन: इसी प्रकार आगे भी ध्यान किया जाता है तो ध्यानप्रवाह बढ़ जाता है किन्तु एकाग्रचिन्तानिरोध रूप ध्यान नहीं, क्योंकि चित्तनिरोध रूप ध्यान यदि इतना लम्बा सध जाये तो फिर मुक्ति होने में विलम्ब ही नहीं होगा। यह अन्तर्मुहूर्त का काल - परिमाण छद्मस्थ के ध्यान का है। जिस आलम्बन पर ध्यान चलता है वह आलम्बन सम्पूर्ण द्रव्य रूप न होकर उसका एकदेश (एक पर्याय) होता है, क्योंकि द्रव्य का चिन्तन उसकी किसी-न-किसी पर्याय द्वारा ही सम्भव है।' 'भगवती सूत्र' में गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं कि अवस्थित परिणाम (ध्यान के परिणाम) कितने समय तक रहते हैं ? भगवान् कहते हैं - गौतम! कम-से-कम एक समय तक और अधिक-से-अधिक अन्तर्मुहूर्त तक। 'स्थानांग सूत्र में भी बताया है कि एक वस्तु (ध्येय) पर चित्त का अवस्थान अन्तर्मुहर्त मात्र तक रहता है। छद्मस्थ और जिन (केवली भगवान्) के योगनिरोध (मन, वचन, काय की क्रिया को रोकना एवं उसे एक ध्येय पर अवस्थित करना) ही ध्यान है। सहनन का आधार : यह सुज्ञात है कि ध्यान के लिए विशिष्ट आसन, समय तथा मनोवृत्ति की आवश्यकता होती है। आसन की स्थिर-सुखमय परिभाषा के बावजूद सामान्य आसन 7. वही, 9.27.28 पं. सुखलाल संघवी टीका 8. (क) भगवती सूत्र श. 25.6.150.20 (ख) योगप्रदीप 15.33 (ग) ध्यानशतक 3. 9. स्थानांगवृत्ति स्थान 4.1.247 ~~~~~~~~~~~~~~~ 10 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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