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खण्ड : चतुर्थ
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
में जब मानसिक, वाचिक, कायिक योगव्यापार के निरोध का क्रम प्रारंभ होता है, तब स्थूल कायिक व्यापार के निरोध के बाद सूक्ष्म कायिक व्यापार के अस्तित्व के समय में सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती नामक तीसरा शुक्लध्यान माना गया है और चौदहवें गुणस्थान की अयोगिपन की दशा में शैलेशीकरण के समय में समुच्छिन्न क्रियानिवृत्ति नामक चौथा शुक्ल ध्यान माना गया है। ये दोनों ध्यान उक्त दशाओं में चित्तव्यापार न होने से छद्मस्थ की भाँति एकाग्रचिन्ता-निरोध रूप तो हैं ही नहीं, अत: उक्त दशाओं में ध्यान को घटाने के लिए सूत्रगत प्रसिद्ध अर्थ के उपरान्त 'ध्यान' शब्द के अर्थविशेष का विशद वर्णन किया गया है कि केवल कायिक स्थूल विषयों के निरोध का प्रयत्न भी ध्यान है और आत्मप्रदेशों की निष्प्रकम्पता भी ध्यान है।
फिर भी ध्यान के विषय में एक प्रश्न रहता है कि तेरहवें गुणस्थान के प्रारंभ से योगनिरोध का क्रम शुरू होता है, तब तक की अवस्था में अर्थात् सर्वज्ञ हो जाने के बाद की स्थिति में क्या कोई ध्यान होता है ? यदि होता है तो कौन सा ? इसका उत्तर दो प्रकार से मिलता है। विहरमाण सर्वज्ञ की दशा में ध्यानान्तरिका कहकर उसमें अध्यानित्व ही मानकर कोई ध्यान स्वीकार नहीं किया गया है। सर्वज्ञ दशा में मन, वचन
और काया के व्यापार संबंधी सुदृढ़ प्रयत्न को ही ध्यान के रूप में मान लिया है। काल का परिमाण :
ध्यान अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक ही टिकता है, बाद में टिकाना कठिन है अत: उसका काल परिमाण अन्तर्मुहूर्त है।
कई लोग श्वास-उच्छ्वास रोक रखने को ही ध्यान मानते हैं तथा अन्य कुछ लोग मात्रा से काल की गणना करने को ही ध्यान मानते हैं। परन्तु जैन परम्परा में यह कथन स्वीकार नहीं किया गया है, क्योंकि यदि सम्पूर्णतया श्वासोच्छ्वास क्रिया रोक ली जाय तो शरीर ही नहीं टिकेगा। मन्द या मन्दतर श्वास का संचार तो ध्यानावस्था में रहता ही है। इसी प्रकार जब कोई मात्रा से काल को गिनता है तो गिनने के काम में ही अनेक क्रियाएँ करने में लग जाने से उसके मन को एकाग्र के स्थान पर व्यग्र ही होना पड़ेगा। यही कारण है कि दिन, महीने और उससे अधिक समय तक ध्यान के टिकने की लोकमान्यता भी जैन परम्परा को ग्राह्य नहीं है, क्योंकि इतने समय तक 6. तत्त्वार्थ सूत्र 9.28 पं. सुखलाल संघवी टीका
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