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खण्ड : चतुर्थ
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww में लगा रहता है। तत्त्वार्थवार्त्तिक में बताया है कि हिंसादि के आवेश और परिग्रह आदि के कारण देशविरत को भी रौद्रध्यान होता है। पर यह नरकादि गतियों का कारण नहीं होता, क्योंकि यह सम्यग्दर्शन के साथ है। संयत के रौद्रध्यान नहीं होता, क्योंकि रौद्र भावों में संयम रह ही नहीं सकता। हिंसानन्दी, अनृतानन्दी, स्तेयानन्दी और परिग्रहानन्दी ये चारों रौद्र ध्यान अतिकृष्ण नील और कापोत लेश्या वालों के होते हैं। ये प्रमादाधिष्ठान हैं और नरक गति को ले जाने वाले हैं। आत्मा इन अशुभ ध्यानों से संक्लिष्ट होकर, तप्त लौहपिण्ड जैसे जल को खींचता है, उसी तरह कर्मों को खींचता है।19
समवायांग सूत्र, भगवती सूत्र, स्थानांग सूत्र और औपपातिक सूत्र में भी रौद्रध्यान के चार प्रकार बताये हैं जो साधु के लिए सदैव त्याज्य हैं।
रौद्रध्यान आर्त्तध्यान से भी निकृष्ट ध्यान है। इसके कार्य हिंसा, असत्य, चोरी और विषयरक्षण नितान्त अशुभ होने से करने वाले की भावात्मकवृत्ति भीषण और क्रूर हो जाती है। विषय-भोग या भोग्य पदार्थों के संरक्षण के लिए भी व्यक्ति कठोर, क्रूर तथा उन्मत्त बन जाता है। उसका चिंतन अत्यंत रौद्र भावापन्न होता है अथवा दुर्धर्ष क्रोधावेश लिये रहता है।
धर्मध्यान और शुक्लध्यान प्रशस्त ध्यान हैं और आत्मलक्ष्यी हैं। शुक्लध्यान विशिष्ट ज्ञानी साधकों को सधता है। वह अन्त:स्थैर्य या आत्मस्थिरता की क्रमश: पराकाष्ठा की दशा है। धर्मध्यान उससे पहले की स्थिति है। वह शुभमूलक है। कुंदकुंद आदि महान् आचार्यों ने अशुभ, शुभ, शुद्ध इन तीन शब्दों का विशेष रूप से व्यवहार किया है। अशुभ पापमूलक, शुभ पुण्यमूलक तथा शुद्ध पाप-पुण्य से अतीत, निरावरण शुद्ध आत्मदशामूलक है। आर्त-रौद्र ध्यान अशुभात्मक, धर्मध्यान शुभात्मक और शुक्लध्यान शुद्धात्मक है। धर्मध्यान:
'तत्त्वार्थसूत्र' में धर्मध्यान के आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय, ये चार भेद किये हैं।20 यह धर्मध्यान अप्रमत्तसंयत के होता है। उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय गुणस्थान वाले जीवों के भी संभव है। 19. तत्त्वार्थ वार्त्तिक 9.35 पृ. 792 20. तत्त्वार्थ सूत्र 9.36 Mmmmmmmmmmmmmmm 15 ~~~~~~~~~~~~~~~
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