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आचार्य उमास्वाति, जिनभद्र गणि और पूज्यपाद के ग्रन्थों में ध्यानविमर्श खण्ड : चतुर्थ
एकाग्रचिन्तानिरोध कहा जाता है। यह ध्यान का स्वरूप है। मुहूर्त शब्द काल का विवक्षित परिमाण है। जो मुहूर्त के भीतर होता है उसे अन्तर्मुहूर्त कहते हैं। अन्तर्मुहूर्त पद द्वारा काल की अवधि का निरूपण किया गया है। इतने काल के अनन्तर एकाग्र चिन्ता दुर्धर होती है।
टीकाकार ने यहाँ एक शंका उठाते हुए कहा है कि यदि चिन्ता के निरोध का नाम ध्यान है, तो निरोध तो अभाव रूप होता है इसलिए ध्यान खर-विषाण की तरह असत् ठहरता है।
___इस शंका का समाधान करते हुए कहा गया है कि ध्यान के विषय में जो उक्त रूप में निरूपण किया गया है उसमें कोई दोष नहीं है क्योंकि अन्य चिन्ताओं की निवृत्ति की अपेक्षा वह असत् कहा गया है और अपने विषय रूप से प्रवृत्त होने के कारण वह सत् कहा जाता है।
इतना कहने के पश्चात् टीकाकार ने नैयायिक दृष्टि से अभाव तत्त्व का निरूपण करते हुए समाधान दिया है कि निरोध शब्द के प्रयोग में शंका को कोई स्थान नहीं है।
भट्ट अकलंक देव ने अपने द्वारा रचित तत्त्वार्थवार्त्तिक (तत्त्वार्थराजवार्त्तिक) नामक टीका में ध्यान विषयक सूत्र का विश्लेषण करते हुए ‘अग्र' शब्द के सम्बन्ध में लिखा है कि यह गत्यर्थक अंग धातु से बना है। इस अंग धातु का कर्मणि तथा अधिकरण में अथवा ऊणादि प्रकरण में 'रंग' निपात होता है। व्याकरण में 'बजेन्द्राग्र' इस सूत्र से अंग का अग्र आदेश होता है। अत: अंग, मुख्य या लक्ष्य एकार्थवाची हैं।
अन्त:करण के व्यापार को चिन्ता कहा जाता है। दूसरे शब्दों में पदार्थों में अन्त:करण की वृत्ति को चिन्ता कहा जा सकता है।
____ अनियतक्रिया अर्थ का नियतक्रिया अकर्तृत्व में अवस्थान होना निरोध है। गमन, भोजन, शयन तथा अध्ययन आदि विविध क्रियाओं में अनियत रूप से भटकने वाली चित्तवृत्ति को एक क्रिया में अवरुद्ध कर देना, रोक देना निरोध है। जिसका अग्र, मुख या लक्ष्य एक होता है वह एकाग्र है। उस एक अग्र में चिन्ता का निरोध
3. तत्त्वार्थ सूत्र 9.28 सर्वार्थसिद्धि टीका पृ. 350 wwwwwwwwwwwwwww 6
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