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________________ खण्ड : चतुर्थ जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम के विशेष अर्थ में प्रयुक्त होता है। यहाँ यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि ध्यान, जिसका संबंध मात्र मन के साथ है, दैहिक दृढ़ता से कैसे जुड़े? कुछ गहराई में जाएँ तो हमें प्रतीत होगा कि ध्यान के लिए मन की स्वस्थता और शक्तिमत्ता का बड़ा महत्त्व है। ध्यान करने में समर्थ मन के लिए जितने शारीरिक बल की आवश्यकता होती है, वह उक्त तीन संहननों से युक्त शरीरों में ही संभव है। मानसिक बल का एक प्रमुख आधार शरीर है और शरीरबल, शारीरिक संघटन पर निर्भर करता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि सबलप्रबल देह का धनी स्वभावत: उच्च मनोबल का भी धनी होगा। पर इतना अवश्य है कि जिसका दैहिक स्वास्थ्य समृद्ध है, वह अस्वस्थकाय मनुष्य की अपेक्षा शीघ्र तथा अधिक सफल हो सकता है। अस्वस्थ एवं हीन संहनन वाले व्यक्ति में मन की स्थिरता इसलिए कम हो जाती है कि वह देह की कमियों-अल्पशक्तिमत्ता आदि के कारण जबतब अस्थिर या विचलित होता रहता है। यहाँ एकाग्रचिंतन के साथ उत्तम संहनन की जो चर्चा है, उसका आशय ध्यान के अनवरत साधने से है। ध्यान की चिरस्थिरता, अविचलता और अभग्नता की दृष्टि से ही आचार्य ने ऐसा कहा है, अन्यथा यत्किञ्चित् एकाग्रचिंतन तो हर किसी को सधता ही है। पारिभाषिक रूप में जिसे उत्तम संहनन कहा गया है, वह आज किसी को प्राप्त नहीं है। वैसी स्थिति में आज ध्यान का अधिकारी कोई हो ही नहीं सकता किन्तु यदि ऐसा होता तो फिर आचार्य हरिभद्र, हेमचन्द्र, शुभचन्द्र आदि महामनीषी, जिन्होंने ध्यान पर काफी लिखा है, ऐसा क्यों करते ? सामान्यत: एकाग्रचिंतन मूलक साधना या ध्यान का अधिकारी अपनी शक्ति, मनोबल, संकल्पनिष्ठा के अनुसार प्रत्येक योगाभिलाषी, योगानुरागी पुरुष है। अतएव प्रशस्त दैहिक संहनन में ही ध्यान सधने से उनका अभिप्राय अनिरुद्ध ध्यान से है, वैसे संहनन के अभाव में ध्यान न सधने से तात्पर्य स्वल्प समयावधि युक्त ध्यान-साधना से है। आचार्य पूज्यपाद ने तत्त्वार्थसूत्र पर अपने द्वारा रचित सर्वार्थसिद्धि नामक टीका में ध्यान के संबंध में विवेचन करते हुए लिखा है कि एकाग्र पद में आये हुए अग्र शब्द का अर्थ मुख है। जिसका एक अग्र होता है वह एकाग्र है अर्थात् किसी एक को सम्मुख रखकर अवस्थित होता है वह एकाग्र है। विभिन्न पदार्थों का अवलम्बन लेने से चिन्तन में परिस्पन्दन होता रहता है। वह अनेकमुखी होता है। उसे अन्य समग्र मुखों से लौटा कर एक अग्र अथवा एक विषय में नियमित सुस्थिर करना, टिकाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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