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खण्ड : चतुर्थ
एकाग्रचिन्तानिरोध है ।
एकाग्रता में चिन्ता का निरोध कैसे होता है ? यह शंका उठा कर वार्त्तिककार ने उसका समाधान देते हुए कहा है कि दीपक की शिखा के सदृश वीर्य विशेष के सामर्थ्य से चित्तवृत्ति का एक स्थान में निरोध हो जाता है। जैसे बाधारहित, वायुरहित प्रदेश में प्रज्वलित दीपशिखा चंचल नहीं होती, स्थिर बनी रहती है, उसी प्रकार निराकुल चित्त एक लक्ष्य में विक्षेप के बिना स्थिर रहता है, अन्यत्र नहीं भटकता ।
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
अग्र शब्द अर्थ का पर्यायवाची है । 'अङ्ग्यते अग्रम्' अंग धातु गमन अर्थ में भी है। तदनुसार जो गुण और पर्यायों को प्राप्त होता है वह अग्र - अर्थ है । 'एक अग्रं' एक द्रव्य परमाणु या भाव परमाणु या अन्य किसी विषय (अर्थ) में चित्तवृत्ति को नियमित करना, केन्द्रित करना, स्थिर करना, एकाग्रचिन्तानिरोध है ।
'ध्यान' शब्द का विश्लेषण करते हुए भट्ट अकलंक देव ने आगे लिखा है कि ध्यान शब्द विवक्षा के वश कर्तृ, करण तथा भाव साधन है। ध्येय के प्रति अव्यापृत उदासीन भाव मात्र की विवक्षा होने पर ' ध्यातिर्ध्यानम्' के अनुसार वह भावसाधन हो जाता है। 'ध्यायतीति ध्यानम्' के अनुसार कर्तृसाधन भी अपेक्षाविशेष से होता है। जैसे छेदने वाले पुरुषकर्त्ता के धर्म का 'तलवार अच्छी तरह छेदती है,' इस प्रकार तलवार करण कर्ता के धर्म का अध्यारोप किया जाता है। उसी प्रकार ध्यान करने वाले आत्मा का ध्यान परिणाम ज्ञानावरणीय तथा वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम के अधीन है अतएव उसी ध्यान परिणाम को कर्ता कह दिया जाता है, अर्थात् पर्याय और पर्यायी ( आत्मा ) में भेदविवक्षा न करने से ध्यान कर्तृसाधन हो जाता है। जब पर्याय (ध्यान) और पर्यायी । (आत्मा) में भेदविवक्षा से वर्णन किया जाता है तो ध्यान शब्द करण साधन हो जाता है । जैसे दाह, पाक, स्वेदन आदि क्रिया में प्रवृत्त अग्नि की औष्ण्य पर्याय में ही करण की कल्पना की जाती है उसी प्रकार आत्मा की ही पर्याय करण कहलाती है। अग्नि उष्णता के द्वारा जलाती है वैसे ही आत्मा के द्वारा ध्याया जाता है वह ध्यान है । यह करण साधन है। आत्मा ध्याती है वह ध्यान है, यह कर्तृ साधन है । 'ध्याति' मात्र ध्यान है, यह भावसाधन है । 4
तत्त्वार्थ सूत्र की टीकाओं में 'श्लोकवार्त्तिक' में तपस्या के भेदों के निरूपण 4. तत्त्वार्थवार्त्तिक (राजवार्त्तिक) 9 / 28 पृ. 647-649
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