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शौरसेनी प्राकृत साहित्य में ध्यानयोग
पाहुड़
इस पाहुड़ में आचार्य कुन्दकुन्द ने ध्यान का वर्णन करते हुए कहा है कि बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के रूप में आत्मा के तीन प्रकार हैं । अन्तरात्मा के उपाय द्वारा बहिरात्म भाव का त्याग कर साधक परमात्मभाव का ध्यान करे । 53
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जो उत्तम चारित्र संपन्न साधक परद्रव्य से पराङ्मुख होकर षद्रव्य या निज स्वरूप का ध्यान करते हैं वे जिनेन्द्र प्रभु द्वारा निर्दिष्ट मार्ग में
'अनुरक्त होते हुए निर्वाण
प्राप्त करते हैं।
जिनेन्द्र प्रभु के सिद्धान्तानुसार जो योगी अपने ध्यान में शुद्ध आत्मा को ध्याता है उस पर एकाग्र होता है वह निर्वाण प्राप्त करता है। उससे स्वर्ग लोक को प्राप्त करना तो क्या कठिन है । 54
खण्ड : तृतीय
यद्यपि शुभ राग रूप तप द्वारा स्वर्ग तो मिल जाता है, किन्तु आगे पारलौकिक शाश्वत सुख नहीं मिलता पर जो ध्यानयोग द्वारा स्वर्ग प्राप्त करते हैं, वे ही आगे उसका अवलम्बन लेते हुए शाश्वत पारलौकिक आध्यात्मिक सुख, परमानन्द प्राप्त कर सकते हैं। 55
शुभ राग पूर्वक अनशन आतापनादि जो बाह्य तप किये जाते हैं उनसे स्वर्ग प्राप्त होता है । उस तप का पर्यवसान वहीं तक रहता है, किन्तु जो ध्यान रूप आन्तरिक तप द्वारा स्वर्ग प्राप्त करते हैं, स्वर्ग-सुख की समाप्ति के पश्चात् भी ध्यान तप के संस्कार बने रहते हैं, वे उन्हें ऐसी साधना से जोड़ते हैं जिससे वे अन्ततः मोक्ष रूप परम सुख के अधिकारी बन जाते हैं।
समस्त कषायों के गौरव - मद, राग-द्वेष तथा मोह का परित्याग कर लोक व्यवहार से विरक्त होकर ध्यान में स्थित हुआ साधक आत्मा का साक्षात्कार करता है। 56
53. अष्टपाहुड : मोक्षपाहुड गा. 4 पृ. 273
54. वही, गा. 19-20 पृ. 282-283
55. वही, गा. 23 पृ. 285
56. वही, गा. 27 पृ. 287
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