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________________ खण्ड : तृतीय जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम संयमी साधक जो अनवरत निर्मल धर्मध्यान और शुक्लध्यान में निरत रहता है, वह समरसतामय ध्यानरूपी अमृत में वर्तनशील रहता है। जो संयमी साधक उन दोनों ध्यानों से विहीन है वह बहिरात्मा है ऐसे इन दोनों ध्यानों से युक्त योगी की मैं शरण स्वीकार करता हूँ। 1 इस श्लोक में धर्म एवं शुक्लध्यान में संलग्न साधक की शरण ग्रहण करने का उल्लेख हुआ है। उससे इनकी श्रेयस्कारिता कल्याणकारिता सिद्ध होती है। ध्यान की गरिमा दर्शाते हुए ग्रंथकार ने लिखा है कि यदि करने की शक्ति या पराक्रम हो तो साधक ध्यानमय प्रतिक्रमण ही करे। यदि वैसा करने की क्षमता से रहित हो तो उसे श्रद्धान ही करना चाहिए। टीकाकार ने इस गाथा के विवेचन में निम्नांकित श्लोक उद्धृत किया हैअसारे संसारे कलिविलसिते पापबहुले, न मुक्तिमार्गेऽस्मिन्ननजिननाथस्य भवति। अतोऽध्यात्म ध्यानं कथमिह भवेन्निर्मलधियां, निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम्॥ कलिकाल से प्रभावित इस असार संसार में परम पवित्र जिनदेव के मार्ग में उन्मुक्त रूप से लीन होना बड़ा कठिन है, अत: निर्मल बुद्धि पुरुषों के आध्यात्मिक ध्यान-धर्म और शुक्ल ध्यान कैसे सध पाये ? वैसा न हो सकने पर आवागमन के भय का नाश करने वाला आत्म-श्रद्धान ही स्वीकृत है।52 आचार्य कुन्दकुन्द ने धर्मध्यान और शुक्लध्यान की उच्च भूमिकाओं का संस्पर्श करते हुए उसे जो विशेषण दिया है, वह आध्यात्मिक है, आत्मा के विशुद्ध स्वरूप को परिलक्षित कर है। वही ध्यान समाधि के रूप में परिणत हो जाता है जहाँ ध्याता, ध्यान और ध्येय अभिन्न बन जाते हैं, अभेदावस्था प्राप्त कर लेते हैं। 51. वही, टीका पृ. 305 52. वही, गा. 154 पृ. 308 '~~~~~~~~~~~~~~ 17 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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