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खण्ड : तृतीय
ध्येय :
टीकाकार ने आगे क्रम प्राप्त ध्येय का निरूपण करते हुए अनेक विशेषणों से विशिष्ट वीतराग जिनेश्वर को, सिद्ध भगवन्तों को, जिनदेव द्वारा उपदिष्ट नौ पदार्थों को तथा बारह अनुप्रेक्षाओं आदि को ध्येय - ध्यान के योग्य कहा है । " ध्यान के
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भेद
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जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
धवला में ध्यान का निरूपण करते हुए उसके धर्म और शुक्ल इन दो भेदों का ही उल्लेख किया गया है। 7 आर्त्त और रौद्र इन दो भेदों का नहीं । संभव है, तप प्रकरण होने से आर्त्त व रौद्र इन दो अप्रशस्त ध्यानों की परिगणना न की गई हो । किन्तु तप का प्रकरण होने पर भी मूलाचार, 8 तत्त्वार्थ, और औपपातिक सूत्र 10 में उपर्युक्त आर्त्त और रौद्र को सम्मिलित कर ध्यान के पूर्वोक्त चार भेदों का ही उल्लेख किया गया है।
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स्वयं वीरसेनाचार्य के शिष्य आचार्य जिनसेन ने भी अप्रशस्त और प्रशस्त इन दो भेदों का निर्देश करके उनमें अप्रशस्त को आर्त्त और रौद्र के भेद से दो प्रकार का तथा प्रशस्त को धर्म और शुक्ल के भेद से दो प्रकार का बतलाया है।
धर्मध्यान ध्येय के भेद से चार प्रकार का है :
अपायविचय, 3. विपाकविचय और 4. संस्थानविचय ।
6. वही, पु. 13 पृ. 69-70
7. वही, पु. 13 पृ. 70
1. आज्ञाविचय: आज्ञा, आगम, सिद्धान्त और जिनवचन ये समानार्थक शब्द हैं। इस आज्ञा के अनुसार प्रत्यक्ष व अनुमानादि प्रमाणों के विषयभूत पदार्थों का जो चिन्तन किया जाता है उसका नाम आज्ञाविचय है । 11
2. अपायविचय : मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग से उत्पन्न होने
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8. मूलाचार 5.197
9. तत्त्वार्थसूत्र 9.28
10. औपपातिक सूत्र 20 पृ. 43
11. षट्खण्डागम, धवला टीका पु. 13 पृ. 71
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1. आज्ञाविचय, 2.
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