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शौरसेनी प्राकृत साहित्य में ध्यानयोग
___ खण्ड : तृतीय
वाले, जन्म - जरा, और मरण की पीड़ा का अनुभव करते हुए उनसे होने वाले अपाय का विचार करना, अपायविचय धर्मध्यान है।12
3. विपाकविचय : प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेदों से शुभ - अशुभ कर्मों के विपाक का स्मरण करना विपाकविचय है।13
4. संस्थानविचय : तीनों लोकों के आकार, प्रमाण एवं उनमें वर्तमान जीवों की आयु आदि का विचार करना संस्थानविचय है।14
कुछ आचार्यों के अनुसार धर्मध्यान असंयत सम्यक्दृष्टि से लेकर सूक्ष्मसांपराय तक सात गुण - स्थानों में होता है; जब कि कुछ आचार्य अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से ही धर्मध्यान की सम्भावना मानते हैं।15
शुक्लध्यान : कषायमल का अभाव होना ही शुक्लध्यान है,16 इसके चार भेद हैं :
पृथक्त्ववितर्कवीचार, एकत्ववितर्कअवीचार, सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाती, समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती या व्युपरतक्रियानिवृत्ति।
1. पृथक्त्ववितर्कवीचार : पृथक्त्व का अर्थ है भेद, वितर्क का अर्थ है द्वादशांग श्रुत और वीचार का मतलब है अर्थ, व्यंजन और योग का बदलना। पृथक्त्व अर्थात् भेदरूप से वितर्क अर्थात् श्रुत का वीचार अर्थात् बदलना जिस ध्यान में होता है वह पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक प्रथम शुक्लध्यान है।
2. एकत्ववितर्कवीचार : एक के भाव को एकत्व कहते हैं, वितर्क द्वादशांग को कहते हैं और वीचार का अर्थ असंक्रान्ति है। अभेदरूप से वितर्क सम्बन्धी अर्थ, व्यंजन और योगों का अवीचार अर्थात् असंक्रान्ति जिस ध्यान में होती है वह एकत्ववितर्क अवीचार ध्यान है। इस ध्यान के द्वारा एक ही योग का आश्रय लेकर एक ही द्रव्य का 12. वही, पृ. 72 13. वही, पृ. 72 14. वही, पृ. 72 15. षट्खण्डागम : एक परिशीलन पृ. 512 - 513 16. षट्खण्डागम, धवलाटीका पु. 13 पृ. 73 ~~~~~~~~~~~mmmm 6 cmmmmmmmmmmmmmm
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