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शौरसेनी प्राकृत साहित्य में ध्यानयोग
खण्ड : तृतीय
KHEDAARRESAMAY
षट्खण्डागम की धवला टीका :
आचार्य भूतबली - पुष्पदन्त (प्रथम शताब्दी) विरचित षट्खण्डागम पर आचार्य वीरसेन स्वामी (9 वीं शताब्दी) द्वारा धवला नामक एक विस्तृत टीका रची गई है। षट्खण्डागम के वर्गणा नामक पाँचवें खण्ड 'कर्म अनुयोग द्वार' में दश कर्मभेदों के अन्तर्गत आठवें तप:कर्म का निर्देश करते हुए उसे छह आभ्यन्तर और छह बाह्य तप के भेद से बारह प्रकार का कहा गया है। ध्यान :
___ आचार्य वीरसेन ने अपनी टीका में आभ्यन्तर तप के पाँचवें भेद ध्यान की प्ररूपणा करते हुए तत्त्वार्थ- सूत्र के अनुसार ही यह कहा है कि उत्तम संहनन वाला जीव एक विषय की ओर जो चित्त को एकाग्र करता है उसे ध्यान कहते हैं। एकाग्रता का आलम्बन लेने वाला स्थिर मन है, उसका नाम ध्यान है। ध्याता :
'धवला' में ध्याता का विचार करते हुए उसमें कौन - कौनसी विशेषतायें होनी चाहिए, इसे स्पष्ट करने के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण विशेषणों का उपयोग करते हए कहा है कि उत्तमसंहनन से युक्त, ओघबली- प्रखर आत्मबल सहित, ओघसूरअत्यधिक आध्यात्मिक शौर्य धैर्य समायुक्त और चौदह अथवा दस-नौ पूर्वो का धारक ध्याता ही ध्यान करने की अर्हता रखता है, उसे इतने पूर्वो का धारक क्यों होना चाहिए, इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि ज्ञान के बिना नौ पदार्थों का बोध न हो सकने से उसके ध्यान की उपपत्ति नहीं हो सकती है।
वह ध्याता समस्त अन्तरंग-बहिरंग परिग्रह का त्यागी होता है, क्योंकि जो क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, यान, आसन आदि बहिरंग परिग्रह और माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद आदि अंतरंग परिग्रह की आकांक्षा से घिरा है, उसके उच्चकोटिका धर्मध्यान या शुक्लध्यान नहीं हो सकता है। 2. षट्खण्डागम 5, 4, 25-26 पु. 13 पृ. 54 3. तत्त्वार्थ सूत्र 9.26 4. षट्खण्डागम, धवला टीका पृ. 64 5. वही, पु. 13, पृ. 65
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