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________________ शौरसेनी प्राकृत साहित्य में ध्यानयोग खण्ड : तृतीय खण्ड:-तृतीय शौरसेनी प्राकत साहित्य में ध्यानयोग प्राचीन जैन वाङ्मय प्राकृत भाषा में सन्निबद्ध है। श्वेताम्बर आगम अर्द्धमागधी प्राकृत में रचित हैं। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार वर्तमान अवसर्पिणी के अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने अर्द्धमागधी भाषा में अर्थ रूप में धर्मदेशना दी। गणधरों द्वारा उसका शब्द रूप में संग्रथन हुआ। वे ही आगम परम्परा से चले आते हुए आज प्राप्त हैं। आगमों का विशुद्ध रूप यथावत् बना रहे इसके लिए आगम-वाचनायें हुईं। मथुरा में तीसरीचौथी शती में हुई माथुरी वाचना के समय आगमों का एक शौरसेनी संस्करण हुआ। अर्द्धमागधी, मागधी और शौरसेनी के बीच की भाषा थी। उसमें कुछ तत्त्व मागधी के और कुछ शौरसेनी के मिश्रित थे। मागधी बोली का प्रचारक्षेत्र मगध दक्षिण बिहार और शौरसेनी बोली का प्रचारक्षेत्र पश्चिमी मध्य भारत था। भगवान महावीर के समय में पूर्व भारत की बोलियों पर आधारित एक प्रकार से सम्पर्क भाषा अर्द्ध मागधी ही थी। क्योंकि मागधी और शौरसेनी दोनों का ही मिलाजुला रूप होने के कारण जिस प्रकार मागधी प्राकृत के क्षेत्र में निवास करने वाले लोगों द्वारा अर्द्धमागधी सरलता से समझी जाती थी उसी प्रकार वह शौरसेनी के क्षेत्र में निवास करने वाले लोगों द्वारा भी सहजतया समझी जाती थी। अर्द्धमागधी प्राकृत में प्रणीत आगमवाङ्मय अंग, उपांग, छेद, मूल, आवश्यक, प्रकीर्णक आदि अनेक भेदों में विभक्त है। उनमें से अंग, उपांग आदि बत्तीस सूत्र ग्रंथ, सभी श्वेताम्बर संप्रदायों द्वारा स्वीकृत हैं। श्वेताम्बर मंदिरमार्गी सम्प्रदाय में प्रकीर्णकों के रूप में बत्तीस से अधिक पैंतालीस आगमों, अधिकतम चौरासी (84) आगमों की भी मान्यता है। दिगम्बर परम्परा में भगवान महावीर द्वारा भाषित आगमों की मान्यता नहीं है किन्तु शौरसेनी आगमों (मथुरागम) के आधार पर रचित परवर्ती आचार्यों के ग्रंथ उन्हें आगमतुल्य मान्य हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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