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प्राचीन जैन अर्धमागधी वाङ्मय में ध्यान
खण्ड : द्वितीय
हिंसाणुरंजितं रौद्र, अटै कामाणुरंजितं। धम्माणुरंजियं धम्मं, सुक्कं झाणं निरंजणं॥
अर्थात् हिंसा से अनुरञ्जित-रंगा हुआ ध्यान रौद्र और काम से अनुरंजित ध्यान आर्त कहलाता है। धर्म से अनुरंजित ध्यान धर्मध्यान है और शुक्लध्यान पूर्ण निरंजन होता है।
इस प्रकार जैन आगम साहित्य में आचारांग सूत्र में ध्यान का मुख्य लक्ष्य ज्ञाता - द्रष्टा भाव या साक्षीभाव में रहने का अभ्यास है। आचारांग में ध्यान वस्तुत: आत्मसजगता की स्थिति है जिसका उल्लेख बार - बार यह कह कर किया गया है कि साधक ! तू जान और देख। आचारांग के पश्चात् आगमों में विशेष रूप से चार ध्यानों का उल्लेख हुआ है और उसमें ध्यान के उप प्रकारों, लक्षणों, ध्यान के आलम्बनों और ध्यान की भावनाओं या अनुप्रेक्षाओं का उल्लेख विस्तार से मिलता है। इस संदर्भ में स्थानांग, समवायांग, औपपातिक सूत्र में विशेष वर्णन हमें प्राप्त होता है।
जैन आगम साहित्य में ध्यान का मुख्य लक्ष्य चित्त की निर्विकल्पता या आत्मा का आत्मा में अवस्थित होना ही है। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि साधक आत्मा के द्वारा आत्मा की सम्प्रेक्षा करे। वस्तुत: ध्यान आत्मा के द्वारा आत्मा में सजग होने की प्रक्रिया ही है। कहा गया है कि साधक अतीत और अनागत विषयों के संबंध में कल्पनामुक्त होकर वर्तमान का अनुपश्यी हो। आत्मा का आत्मा में रमण करना ही ध्यान है। 'अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं।'
इस प्रकार जैन आगम साहित्य में ध्यान एक क्रिया के रूप में नहीं अपितु एक आध्यात्मिक स्थिति के रूप में व्याख्यायित हुआ है। वह आत्मा में अवस्थित होने की व आत्मा में रमण करने की विधिविशेष माना गया है।
प्रस्तुत अध्याय में आगमों के साथ-साथ हमने नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीकाओं को भी समाहित करने का प्रयास किया है। इसका मुख्य कारण यह है कि आगमिक व्याख्या साहित्य में विषयवस्तु का चाहे विस्तार हुआ, किन्तु उसका मूल आधार आगम ही रहे हैं। आगमों में हमें ध्यानसाधना के आध्यात्मिक पक्ष के साथ97. समणसुत्तं 18
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