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________________ खण्ड : द्वितीय जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम उपसर्ग तीन प्रकार के होते हैं - जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। भगवान महावीर ने अपने साधना - काल में अनेक उपसर्गों एवं परीषहों को सहन किया। परीषह अनुकूल भी थे तो प्रतिकूल भी। उनमें जघन्य उपसर्ग कटपूतना व्यन्तरी का शीत परीषह और उत्कृष्ट कानों से कील निकालने का परीषह था। भगवान ने सभी परीषहों को समभाव से सहन कर कर्मनिर्जरा कर आत्मसमाधि प्राप्त की। वस्तुत: जब भी किसी उपसर्ग की स्थिति होती भगवान ध्यान में आरूढ़ हो जाते। ध्यान की एकाग्रता के कारण वे दैहिक उपसर्ग भगवान के चित्त को विचलित नहीं कर सके। 'आवश्यकनियुक्ति' की ध्यान संबंधी गाथाओं की चूर्णि में जिनदास गणि महत्तर ने न केवल ध्यान को परिभाषित किया है अपितु चारों ध्यानों के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए यह बताया है कि किस निमित्त से कौन सा ध्यान होता है। ध्यान का स्वरूप: जीवस्स एगग्ग-जोगाभिणिवेसो झाणं। अंतोमुहुत्तं तीव्रयोगपरिणामस्स अवस्थानमित्यर्थः । निर्वात स्थान में स्थिर दीपशिखा के समान निश्चल और अन्य विषयों के संकल्प से रहित केवल एक ही विषय का धारावाही चिन्तन ध्यान कहलाता है अर्थात् अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थिर अध्यवसान एवं मन की एकाग्रता को ध्यान कहते हैं। ध्यान के भेद : ध्यान प्रशस्त और अप्रशस्त रूप से दो प्रकार का है। आर्त्त और रौद्र अप्रशस्त ध्यान हैं, अत: हेय हैं, त्याज्य हैं। धर्म तथा शुक्ल प्रशस्त ध्यान हैं, अत: उपादेय हैं, आदरणीय हैं। आर्त आदि चारों ही ध्यानों का स्वरूप संक्षेप में स्मृतिस्थ रह सके, इसके लिए एक गाथा आचार्य जिनदास मणि महत्तर ने आवश्यक चूर्णि' के प्रतिक्रमाणाध्ययन में 'उक्तंच' के रूप में उद्धृत की है। गाथा संस्कृत और प्राकृत भाषा में सम्मिश्रित है और बड़ी ही सुन्दर है। 96. वही, चूर्णि गा. 524 की पृ. 293 ~~~~~~~~~~~~~~~ 49 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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