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________________ खण्ड : द्वितीय जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम है। भगवान कुमारग्राम और छम्माणीग्राम नामक बहिर्वृत्ति स्थान में ध्यानस्थ खड़े थे । ग्वालों ने उन्हें अनेक प्रकार से उत्पीड़ित किया । हृदयद्रावक उपसर्ग किये, जिससे भयंकर वेदना हुई । किन्तु भगवान आत्मचिन्तन में लीन रहे । उन कष्टों को पूर्वकृत कर्मों का विपक फल समझते हुए समभावपूर्वक साधना में तन्मय रहे । 'आवश्यक निर्युक्ति' में कतिपय अन्य प्रसंगों का भी उल्लेख हुआ है जहाँ अनेक प्रकार के विघ्नों बाधाओं, परिषहों तथा उपसर्गों के आने पर भी भगवान की सुदृढ़ ध्यानसाधना जरा भी व्याहत नहीं हुई । अत्यन्त कष्टप्रद विषम स्थितियों में भी वे अपने ध्यान में अविचल रहे । 91 जब भगवान ध्यानस्थ होते तो उन्हें सर्दी-गर्मी का भी ध्यान नहीं रहता था । हलिग नामक ग्राम के बाहर हलिदुग वृक्ष के नीचे वे ध्यानस्थ मुद्रा में खड़े थे । कड़कड़ाती सर्दी पड़ रही थी । कुछ यात्रियों ने उसी वृक्ष के नीचे विश्राम किया और सर्दी से राहत पाने हेतु अग्नि प्रज्वलित की। सूर्योदय से पूर्व ही उन यात्रियों ने तो वहाँ से प्रस्थान कर दिया किन्तु अग्नि की लपटें ध्यानस्थ खड़े महावीर के पैरों तक गईं, उनका शिष्य गोशालक तो आग की लपटों से घबराकर अन्यत्र चला गया पर महावीर ध्यान में लीन रहे । " क्योंकि उनकी साधना भेद - विज्ञान की साधना थी, वे आत्म-साधना में लीन थे, उन्हें शरीर का कुछ भी भान नहीं था । शारीरिक कष्टों को कर्मनिर्जरार्थ सहन करना ही उन्होंने अपना ध्येय बना रखा था। शूलपाणियक्ष के द्वारा विभिन्न हाथी, पिशाच, सर्प आदि के रूप बनाकर आँख, कान, नासिका, सिर, दाँत, नख, पीठ इन सप्त स्थानों में दिये गये भयंकर उपसर्गों से निर्मित वेदनाएँ दी गईं। इन लोमहर्षक उपद्रवों की लम्बी श्रृंखलाओं को, वे सुमेरु की भाँति अडिग निश्चल रहकर समभाव से सहन करते रहे । अन्ततः शूलपाणियक्ष भगवान की साधना के सामने झुक गया। 2 चण्डकौशिकसर्प ने भी भगवान महावीर पर विषैली फुंकार फेंकी व पैरों पर दंश दिया, किन्तु भगवान की प्रेमामृत की वर्षा ने उसे शान्त कर दिया । 3 शालीशीर्ष 90. (क) वही, ( भाग 1 ) गा 461 (ख) वही, गा. 525 91. (क) वही, 279, ( मलयगिरि) (ख) वही, (हरिभद्र ) 479 (ग) वही हरि भद्र टीका गा. 479 की चूर्णि 92. वही, गा. 464 एवं उसकी चूर्णि 93. वही, गा. 468 Jain Education International 47 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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