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प्राचीन जैन अर्धमागधी वाङ्मय में ध्यान
खण्ड : द्वितीय
स्थान में न रहना, नित्य ध्यान में तन्मय रहना, सदैव मौन रहना, हाथ में भोजन करना, गृहस्थों का विनय नहीं करना', ये पाँच प्रतिज्ञायें कीं। इनमें नित्य ध्यान में लीन रहने की दूसरी प्रतिज्ञा से यह व्यक्त होता है कि ध्यान उनकी जीवन-साधना का अनन्य अंग था।
जिस तरह नित्य प्रति पौद्गलिक देह के लिए भोजन अपेक्षित होता है, उसी तरह आध्यात्मिक जीवन के लिए वे ध्यान को परमावश्यक मानते थे।87
भगवान महावीर के तीव्रतम तपोमय साधनामय जीवन के एक प्रसंग का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि जब वे दृढभूमि के पेढ़ाल ग्राम में विहरणशील थे तब उन्होंने पौल्लास में त्रिदिवसीय उपवास किया। कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित हुए उनका शरीर आगे की ओर झुका हुआ था, दृष्टि एक पुद्गल पर सन्निविष्ट थी। नेत्र निर्निमेष थे। शरीर प्रणिहित सम्यक् अवस्थित था तथा इन्द्रियाँ गुप्त-वंशगत थीं, दोनों पैर परस्पर सटे थे। दोनों हाथ प्रलम्बित थे। इस मुद्रा में भगवान ने ध्यानाभिरत एक रात्रि में महाप्रतिमा की आराधना की।
एक अन्य प्रसंग में बताया गया है कि सानुवृष्टि ग्राम में भगवान ने भद्रा, महाभद्रा और सर्वतोभद्रा प्रतिमा की आराधना की। वे सोलह दिन-रात सतत ध्यानरत और उपवास युक्त रहे।88
केवलज्ञान उत्पन्न होते समय भगवान किस अवस्था में विद्यमान थे, उनका उल्लेख करते हुए नियुक्तिकार ने कहा है - भगवान उस समय उत्कटिकासन में स्थित थे। उनके द्विदिवसीय उपवास था। वे ध्यानान्तरिका में - गहनतम ध्यानमुद्रा में - ध्यानावस्था में वर्तमान थे।89
____ आवश्यकनियुक्ति' में भगवान महावीर की साधना का जो वर्णन आया है, उससे प्रकट होता है कि उनकी ध्यानसाधना बड़ी ही दृढ़, उदग्र और सुस्थिर थी। वे किसी भी स्थिति में उससे चलित नहीं होते थे। वहाँ एक घटना का उल्लेख हुआ
87. वही, चूर्णि पृ. 271 88. वही, 89. वही ~~~~~~~~~~~~~~~
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