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खण्ड : द्वितीय
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
आचार्य भद्रबाह ने 'आवश्यकनियुक्ति' में कायोत्सर्ग के विशद विवेचन के अन्तर्गत ध्यान का प्रतिपादन किया है। क्योंकि कायोत्सर्ग के बिना ध्यान सिद्ध नहीं होता। आचार्य ने चित्त की एकाग्रता अथवा किसी एक आलम्बन पर चित्त को स्थिर करने या टिकाने को ध्यान कहा है। साथ ही यह भी बताया गया है कि ध्यान मानसिक, वाचिक और कायिक तीन प्रकार का माना गया है। ध्याननिरत साधक 'मेरा शरीर अप्रकम्पित हो' इस संकल्प के साथ स्थिरकाय बनता है। यह कायिक ध्यान है। जब वह संकल्प के साथ अपने वचनयोग को स्थिर बनाता है तब उसके वाचिक ध्यान सधता है। जब वह अपने मन को एकाग्र करता है और वाणी को एवं शरीर को भी उसी लक्ष्य पर केन्द्रित करता है तब उसके कायिक, वाचिक एवं मानसिक तीनों प्रकार के ध्यान एक साथ निष्पन्न होते हैं।9
इस ग्रन्थ में चार प्रकार के ध्यानों का उल्लेख भी हुआ है। वहाँ उसके शुभ और अशुभ दो भेद आख्यात किये गये हैं। प्रथम दो ध्यान अशुभ हैं, वे संसार को बढ़ाने वाले हैं एवं अन्तिम दो शुभ हैं वे मुक्ति के हेतु हैं। अत: धर्म और शुक्लध्यान ही अधिकृत हैं। ध्यान का कालमान अन्तर्मुहूर्त है। ध्यानसाधना में ऊर्ध्वगामिता के दो रूप हैं - छद्मस्थ का ध्यान एवं वीतराग प्रभु का ध्यान। छद्मस्थ का ध्यान अन्तर्मुहर्त पर्यन्त मन की स्थिरता या चिन्तन की एकाग्रतामूलक होता है तथा जिन या वीतरागता का ध्यान कायिक स्थिरता रूप है।81
कायोत्सर्ग का अर्थ, प्रयोजन, विधि, भेद, फल, अभ्यासी की अर्हता, ध्यान और कायोत्सर्ग में संबंध जैसे विषयों पर प्रकाश डालते हुए अन्त में कहा गया है कि कायोत्सर्ग से सभी प्रकार के दु:खों से विमुक्ति होती है। संक्षेपत: कायोत्सर्ग मोक्षमार्ग के रूप में उपदिष्ट है।
आचार्य भद्रबाहु ने82 लिखा है - कायोत्सर्ग स्थिति में यदि भक्तिभाव से
78. आवश्यक नियुक्ति गा. 1463 79. वही, गा. 1474, 1476-1478 80. वही, गा. 1495 81. वही (भाग 2) पृ. 71 82. वही गा. 1548
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