________________
प्राचीन जैन अर्धमागधी वाङ्मय में ध्यान
खण्ड : द्वितीय
कोई चन्दन लगाए या कोई द्वेष के कारण वसौले से उसके शरीर का छेदन करे, चाहे जीवन रहे, चाहे मृत्यु का वरण करना पड़े, पर साधक देह में आसक्त नहीं होता है । वह सभी स्थितियों में सम रहता है। उसी का कायोत्सर्ग विशुद्ध होता है । कायोत्सर्ग के समय देव, मानव और तिर्यंच संबंधी सभी प्रकार के उपसर्ग उपस्थित होने पर उन्हें अच्छी तरह से सहन करता है, उसी का कायोत्सर्ग वस्तुतः सही कायोत्सर्ग है। 83
84
जैसे कायोत्सर्ग में अवस्थित होने पर सारा शरीर दर्द करने लगता है, प्रत्येक अंग में एक प्रकार की वेदना होने लगती है, वैसे ही कायोत्सर्ग में साधक के आठों कर्म पीड़ित होते हैं और वे धीरे - धीरे नष्ट होने लगते हैं।' आचार्य भद्रबाहु ने कायोत्सर्ग के साधकों के लिए जिन तथ्यों का प्रतिपादन किया है, वे तथ्य साधक के अन्त में बल का संचार करते हैं और वह दृढ़ता के साथ कायोत्सर्ग में तल्लीन हो जाता है, पर इसका यह तात्पर्य नहीं है कि वह मिथ्या आग्रह के चक्कर में पड़कर अपने जीवन को होम दे। क्योंकि सभी साधकों की स्थिति समान नहीं होती। कुछ साधक विशिष्ट होते हैं। वे कष्टों से घबराते नहीं, शेर की तरह दहाड़ते हुए आगे बढ़ते हैं पर कुछ दुर्बल साधक भी होते हैं । उनके लिए 'आवश्यक सूत्र' में आगारों का निर्देश है। जैसे कायोत्सर्ग में खांसी, छींक, डकार, मूर्छा आदि विविध व्याधियाँ हो सकती हैं। कभी शरीर में प्रकम्पन आदि भी हो सकता है तो भी कायोत्सर्ग भंग नहीं होता। किसी समय साधक कायोत्सर्ग में खड़ा है। उस समय मकान की दीवार या छत गिरने की स्थिति भी पैदा हो सकती है। मकान में या जहाँ पर खड़ा है वहाँ पर अग्निकांड भी हो सकता है । तस्कर और राजा आदि के भी उपसर्ग पैदा हो सकते हैं । उस समय कायोत्सर्ग से निवृत्त होकर साधक सुरक्षित स्थान पर जा सकता है । तथापि उसका कायोत्सर्ग भंग नहीं होता क्योंकि कायोत्सर्ग का मूल उद्देश्य समाधि है। यदि समाधि भंग होती है, आर्त्त और रौद्र ध्यान में परिणत होती है तो फिर वह कायोत्सर्ग नहीं है। कायोत्सर्ग में समाधि की अभिवृद्धि हो तो वह कायोत्सर्ग हितावह है । जिस कार्य को करने से समाधि की वृद्धि होती हो, आर्त्त और रौद्र ध्यान बढ़ते हों तो वह कायोत्सर्ग के नाम पर किया गया कार्य विवेकपूर्वक नहीं है। आचार्य ने तो यहाँ तक कहा है 85 कि साधक कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ा है और यदि किसी दूसरे 83. वही, गा. 1549
84. वही, गा. 1551
85. वही, गा. 1516
Jain Education International
44
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org