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________________ प्राचीन जैन अर्धमागधी वाङ्मय में ध्यान खण्ड : द्वितीय द्रव्य और भाव के भेद को समझाने के लिए आचार्यों ने चार भेद बतलाए हैं।' 73 1. उत्थित उत्थित 2. उत्थित - निविष्ट 3. उपविष्ट - उत्थित 4. उपविष्ट - निविष्ट कायोत्सर्ग के उपर्युक्त नौ भेदों में मुख्य तीन ही शब्द हैं- उत्सृत, निषण्ण और निपन्न। इन तीनों के द्रव्य और भाव से चार चार विकल्प किये जाते हैं । यथा द्रव्य से उच्छ्रित, भाव से उच्छ्रित, द्रव्य से उच्छ्रित, भाव से अनुच्छ्रित द्रव्य से अनुच्छ्रित, भाव से उच्छ्रित, द्रव्य से अनुच्छ्रित, भाव से अनुच्छ्रित । ऐसे ही निषण्ण और निप्पन्न के भी चार चार विकल्प समझने चाहिए । कायोत्सर्ग के इन भेदों में ध्यान का जिस जिस रूप में समावेश हुआ है उससे यह स्पष्ट है कि वह कायोत्सर्ग का प्रवेशद्वार है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि कायोत्सर्ग की पवित्रता एवं विशुद्धि में धर्म ध्यान और शुक्लध्यान का ही स्थान है । कायोत्सर्ग में स्वदोषों की यथाक्रम में आलोचना की जाती है, एवं जब तक गुरु कायोत्सर्ग सम्पन्न न करे तब तक श्वास-प्रश्वास को सूक्ष्म कर धर्म - शुक्ल ध्यान किया जाता है। 74 कायोत्सर्ग का परिमाण या अवधि भिन्न-भिन्न अवसरों के लिए भिन्न-भिन्न बताई गई है। उसकी अवधि या कालमान को श्वास के आधार पर श्लोक द्वारा निर्धारित किया जाता है। 75 श्वास के उच्छ्वास की लम्बाई या कालमान को श्लोक के चतुर्थांश के स्मरण से निश्चित किया गया है।' अतः कायोत्सर्ग के साथ श्वास की प्रेक्षा या श्वास का उपयोग भी जुड़ा हुआ है। 76 कायोत्सर्ग के अभ्यास से अनेक निष्पत्तियाँ होती हैं - धर्म का बोध, देह जाड्य शुद्धि, मति जाड्य शुद्धि, सुख-दुःख तितिक्षा, अनुप्रेक्षा और ध्यान- एकाग्रता के विकस में असाधारण लाभ की प्राप्ति होती है। 77 73. अमितगति श्रावकाचार 8.5 7-61 74. आवश्यक निर्युक्ति गा. 1514 75. वही, गा. 1544 76. वही, गा. 1553 77. कायोत्सर्गशतक गा. 13 Jain Education International 42 For Private & Personal Use Only Prod www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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