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प्राचीन जैन अर्धमागधी वाङ्मय में ध्यान
खण्ड : द्वितीय
प्रश्नव्याकरण सूत्र :
द्वादशांगी का दसवाँ अंग सूत्र ‘प्रश्नव्याकरण सूत्र' है। यह आस्रव विवेचन और संवर विवेचन द्वारों या भागों में विभक्त है। संवर द्वार में एक स्थान पर निर्ग्रन्थों की इकतीस उपमाएँ वर्णित हैं। उनमें “खाणुं चेव उड्डकाए'' के रूप में बावीसवीं उपमा का उल्लेख हुआ है। स्थाणु का अर्थ सूखा दूँठ होता है। जिस तरह वह ऊँचा उठा होता है उसी प्रकार निर्ग्रन्थ कायोत्सर्ग में स्थित रहते हैं। इस उपमा से सिद्ध होता है कि निर्ग्रन्थों द्वारा ध्यान और कायोत्सर्ग किया जाना विशेष गुण रहा है। कायोत्सर्ग ध्यान की वह उत्कृष्ट स्थिति है जहाँ साधक इतना आत्ममय हो जाता है कि उसको अपनी देह का भी भान नहीं रहता, मानों उसने देह का उत्सर्जन या परित्याग किया हो।”
इन्हीं उपमाओं में “सुण्णागारा वणस्संतो णिवाय सरणप्पदीपज्झाणमिव णिप्प कंपे।" इसका यह अभिप्राय है कि जिस प्रकार शून्य आगार में निर्वात - वायु रहित स्थान में जिस तरह दीप प्रज्वलित रहता है, उसी प्रकार निर्ग्रन्थ ध्यानावस्था में निष्प्रकम्प रहते हैं।40 इस उपमा का यह आशय है कि निर्ग्रन्थ साधक प्रगाढ़ ध्यान के अभ्यासी होते हैं। वे अपने ध्येय में सर्वथा तन्मय होते हैं। इसलिए वे उसमें सुस्थिर, अविचल और निष्प्रकम्प रहते हैं। इस सूत्र में कर्मबन्ध के रूप में आस्रवों का और आस्रवनिरोध के रूप में संवरों का वर्णन है। इसलिए ध्यान का पृथक् रूप में विवेचन नहीं हआ है क्योंकि ध्यान का सम्बन्ध निर्जरा तत्त्व के साथ है किन्तु ये दो उपमायें महाव्रती साधकों के अत्यन्त ध्यानाभ्यासी होने का संकेत करती हैं। इनसे यह प्रकट होता है कि 'ध्यानाभ्यास' साधु की महत्त्वपूर्ण विशेषताओं में सम्मिलित रहा है।
इस सूत्र के तृतीय संवर द्वार सूत्र में अस्तेय व्रत की तृतीय भावना के अन्तर्गत संयमी साधक को दैहिक और मानसिक शुद्धिपूर्व शय्या-परिकर्म-वर्जन का विधान किया गया है। वहाँ उसे निरन्तर आत्मा के ध्यान में रत रहने, समितियों का पालन करने एवं रागद्वेष रहित होकर धर्म का आचरण करने का निर्देश किया गया है।41
अपरिग्रही संयमी साधक की ग्राम-नगर आदि में विहरण के अन्तर्गत किस 39. प्रश्नव्याकरण सूत्र 2.5.163 पृ. 250 40. वही, 2.5. 164 पृ. 251 41. वही, 2.3 पृ. 209 ~~~~~~~~~~~~~~~ 30 ~~~~~~~~~~~~~~~
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