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खण्ड : द्वितीय
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
आत्मा की ( चेतना की ) परिणति के तीन रूप बतलाये गये हैं(1) हीयमान, (2) अवस्थित और (3) वर्द्धमान
हीयमान वह परिणति है जो क्रमशः घटती जाती है। वर्द्धमान उसे कहा जाता है जो क्रमश: वर्द्धनोन्मुख होती है । अवस्थित उसे कहा जाता है जो हानि तथा वृद्धि से रहित होती है । अवस्थित परिणति में न तो हीयमानता होती है और न वर्द्धमानता होती है, उसमें अवस्थिता या स्थिरता होती है। हीयमान तथा वर्द्धमान परिणति में एकाग्रता नहीं सध पाती । केवल अवस्थितता में ही एकाग्रता प्रतिफलित होती है। ध्यान का सम्बन्ध एकाग्रता से है । इसलिए उसे अवस्थित परिणति से जोड़ा जा सकता है। भगवती सूत्र में भगवान महावीर और गणधर गौतम के प्रश्नोत्तरों के रूप में एक प्रसंग आया है । गौतम ने भगवान से पूछा - "भगवन् ! अवस्थित परिणति कितने समय तक हो सकती है ? उसका कालमान क्या है ?" भगवान ने समाधान करते हुए कहा, " गौतम ! अवस्थित परिणति कम-से-कम एक समय और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक हो सकती है।' इसी आधार पर ध्यान का कालमान निर्धारित किया गया जिसका अनुसरण -करते हुए उत्तरवर्ती आचार्यों ने उसे व्याख्यात किया है। ज्ञातव्य यह है कि ध्यान का सातत्य और नैरन्तर्य अन्तर्मुहूर्त से अधिक हो नहीं सकता, जो आज कालपर्यन्त सतत ध्यान निमग्नता का कथन किया जाता है वह आगमिक दृष्टि से यथार्थ नहीं है। हाँ, इतना अवश्य है कि अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् पुनः ध्यान का क्रम प्रारम्भ किया जा सकता है अर्थात् पूर्ववर्ती ध्यान से उसे जोड़ा जा सकता है । इस तरह आगे भी यह क्रम गतिशील रह सकता है। यों मध्यवर्ती व्यवधान पूर्वक दीर्घकालिक ध्यान भी हो सकता है। किन्तु अव्यवहित निरन्तर के रूप में वैसा नहीं होता । यह कथन सर्व साधारण की दृष्टि से है। उच्चतम गुणस्थानवर्ती साधकों पर लागू नहीं होता । उस कोटि के साधक आज प्राप्त भी नहीं हैं
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भगवती सूत्र के पश्चात् ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृतदशा और अनुत्तरौपपातिकदशा ये चार ग्रन्थ कथात्मक हैं। इनमें साधकों के ध्यान सम्बन्धी निर्देश को छोड़कर ध्यान-सम्बन्धी चर्चा का अभाव है । 'उपासकदशा' में कुण्डकौलिक आदि श्रावकों के ध्यान की विशेष चर्चा है ।
38. वही 25.6.770
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