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खण्ड : द्वितीय
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
जो राग - द्वेष के कारण उत्पन्न होते हैं, सूक्ष्म चिन्तन करना अपायानुप्रेक्षा है।
सूक्ष्म ध्यान गहन आन्तरिक अनुभूति का विषय है। यह सामान्य साधकों के नहीं सधता। उच्चतम गुणस्थानों को प्राप्त महान् अध्यात्मयोगियों के यह सधता है। जैसा ऊपर विवेचन किया गया है, इस ध्यान में योगी बहिर्जगत् से छूटता-छूटता अन्तर्जगत् में इतना लीन हो जाता है कि अन्तत: वह जीवन का परम साध्य परिनिर्वाण या मोक्ष अधिगत कर लेता है। यह योगी की साधना का परम श्रेयस्पूर्ण पर्यवसान है। समवायांग सूत्र में ध्यान :
द्वादशांगी के चतुर्थ अंग ‘समवाय' के चौथे समवाय में ध्यान के चारों भेदों का उल्लेख हुआ है। इसी सूत्र में बत्तीसवें समवाय में बत्तीस योगसंग्रहों का वर्णन आता है। इनमें मुख्य रूप से उन तथ्यों का समाकलन है जो एक अध्यात्मयोगी साधक के जीवन में परिष्कार लाते हैं। इनके अन्तर्गत ध्यान संवरयोग' अट्ठाईसवाँ योगसंग्रह है। इसका अभिप्राय यह है कि साधक धर्मध्यान को स्वायत्त करने तथा शुक्लध्यान तक पहुँचने, उस दिशा में बढ़ने के लिए आस्रव द्वारों का संवरण करेगा। आवश्यक नियुक्ति में 'ध्यान संवर योग' का आशय ‘सूक्ष्म ध्यान' है। भगवती सूत्र और ध्यान :
द्वादशांगी के पाँचवें अंग 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' सूत्र में गौतम गणधर और भगवान महावीर के प्रश्नोत्तर के रूप में ध्यान का विशद विवेचन हुआ है। गौतम ने भगवान महावीर से पृच्छा की कि “भगवन् ! ध्यान क्या है? कितने प्रकार का है ?" भगवान ने उत्तर दिया, “गौतम ! ध्यान के चार प्रकार आतं, रौद्र, धर्म और शुक्ल हैं।"36
इस आगम में इन चारों ध्यानों के स्वरूप, लक्षण आदि का वैसा ही वर्णन है जैसा स्थानांग सूत्र में है। विस्तार एवं पिष्टपेषण के भय से हम यहाँ उसकी चर्चा नहीं कर रहे हैं। भगवान इसी संदर्भ में अपनी अध्यात्म साधना के अन्तर्गत ध्यानात्मक प्रक्रिया व अनुभूति का विवेचन करते हुए अपने शिष्य गौतम गणधर से कहते हैं - 34. समवायांग सूत्र समवाय 4.20 पृ.11 35. समवायांग सूत्र समवाय 32 पृ. 93 36. भगवती सूत्र 25.7.509-513
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