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प्राचीन जैन अर्धमागधी वाङ्मय में ध्यान
खण्ड : द्वितीय
शुक्लध्यान के चार आलम्बन : (1) क्षान्ति (2) मुक्ति (3) आर्जव और (4) मार्दव, शुक्लध्यान के ये चार आलम्बन प्रज्ञप्त हुए हैं।
क्षान्ति का अर्थ क्षमाशीलता है। यह तब सधती है जब अनुकूल प्रतिकूल के भेद से व्यक्ति ऊँचा उठ जाता है। यहाँ मुक्ति का अर्थ लोभात्मक वृत्ति से ऊँचा उठना है। यह भी आत्मा की शुद्धत्वोपपन्न दशा है। आर्जव का अभिप्राय ऋजुता या सरलता है। मार्दव का आशय मृदुता या कोमलता है। इन चारों ही का अभिप्राय आत्मा की निर्मलता, पवित्रता एवं सात्विकता के साथ जुड़ा है। धर्मध्यान जैसे उच्च ऊर्ध्वगामी साधना पथ पर अग्रसर साधक सहजरूप में इनका अनुप्रेक्षण करते रहते हैं। ये आत्म-नैर्मल्य के वे रूप हैं जिनसे उसकी सहजता अभिव्यक्त होती है। शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ :
(1) अनन्तवृत्तितानुप्रेक्षा (2) विपरिणामानुप्रेक्षा (3) अशुभानुप्रेक्षा (4) अपायानुप्रेक्षा।
जीव अपने कर्मों के अनुसार दीर्घ काल तक संसार में परिभ्रमण करता रहता है। एक जीव संसार के समस्त पुद्गलों का जब किसी-न-किसी रूप में उपयोग कर लेता है तब उसे एक पुद्गलपरावर्त कहा जाता है। ऐसे अनन्त पुद्गलपरावर्तों में से उसे गुजरना होता है। जब वह चरम पुद्गल परावर्त में होता है तब कहीं स्वत: प्रेरित आत्म-पराक्रम के बल से मिथ्यात्व की ग्रन्थि को भग्न करने की दिशा में उन्मुख होता है। इस प्रकार का चिन्तन अनन्तवृत्तितानुप्रेक्षा है। यह शुक्लध्यान में संप्रवृत्त साधक में होती है।
संसार के विभिन्न पदार्थ विविध परिणमनों में से गुजरते हैं। परिणमनों का वैविध्य अनेकानेक रूप लिये रहता है। यह भी अन्त:चिन्तन की सूक्ष्म प्रक्रिया है जो विपरिणामानुप्रेक्षा में घटित होती है।
तत्त्वत: यह संसार, शरीर और भौतिक भोग-सुख अशुभ हैं। आत्मा के लिए वे अश्रेयस्कर और अकल्याणकारी हैं। सूक्ष्म, तलस्पर्शी दृष्टिकोण से ऐसा विचार करना अशुभानुप्रेक्षा है।
आत्म-विकास में अपाय, विघ्न, बाधा, अवरोध उत्पन्न करने वाले दोषों पर
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