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खण्ड : द्वितीय
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
कर लेते हैं। इस प्रकार शुक्लध्यान से योगक्रिया समुच्छिन्न (सर्वथा विनष्ट) हो जाती है और उससे नीचे पतन नहीं होता, अत: इसका समुच्छिन्नक्रिय अप्रतिपाती यह सार्थक नाम है। . शुक्लध्यान के चार लक्षण : शुक्लध्यान के सधने के चार लक्षण बतलाये गये हैं। वे हैं
(1) अव्यथ (2) असम्मोह (3) विवेक और (4) व्युत्सर्ग।
शुक्लध्यान में अवस्थित आराधक अत्यधिक आत्मस्थिरता प्राप्त करता जाता है। इसलिए बाहर की प्रतिकूल परिस्थितियाँ इसे विचलित नहीं कर पाती हैं। वह किसी भी प्रकार की व्यथा या पीड़ा से, परीषहों से, परोत्पादित कष्टों से व्यथित नहीं होता, कदापि क्षुब्ध नहीं होता, 'अव्यथ' शब्द का यही भाव है।
साधना का मार्ग बड़ा कंटकाकीर्ण है। उसमें अनेकानेक विघ्न उपस्थित होते हैं। यदि साधक परिपक्व न हो तो वे उसे मोहमूढ़ बना देते हैं। मिथ्यात्वी देव आदि भी उसे ध्यान से विचलित करने का दुष्प्रयास करते हैं किन्तु शुक्लध्यान का आराधक यदि अन्तर्जागरूकता लिये होता है तो वह कदापि विमोहित नहीं होता। 'असम्मोह' इसी भाव का द्योतक है।
शुक्लध्यान के आराधक में उत्तम भेदविज्ञान की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। वह सभी संयोगों को अपनी आत्मा से सर्वथा भिन्न मानता है। ऐसा भेदविज्ञान जब हो जाता है, तब साधक में सहज ही अपनी विशुद्धावस्था में बने रहने की क्षमता आ जाती है। ऐसा होने के मूल में विवेक की पृष्ठभूमि है। जब विवेक अधिगत हो जाता है तब भेदविज्ञान निष्पन्न होता है।
साधक जब स्व-पर के भेद से सर्वथा अभिज्ञ हो जाता है तब जागतिक पदार्थों के प्रति यहाँ तक कि अपने देह के प्रति भी उसका ममत्व मिट जाता है। वह अपने देह के लिए उपयोगी वस्तुओं में भी सर्वथा आसक्तिशून्य बन जाता है। यह अत्यन्त नि:संगता की स्थिति है। अनासक्तिमय जीवन का यह उत्कृष्ट रूप है जो शुक्लध्यान में प्रतिफलित होता है। ये चतुर्विध लक्षण या साधक के जीवन की चार स्थितियाँ उसके शुक्लध्यानरत होने की पहचान हैं। ~~~~~~~~~~~~~ 25 ~~~~~~~~~~~~~~~
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