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________________ प्राचीन जैन अर्धमागधी वाङ्मय में ध्यान खण्ड : द्वितीय यह संसार मनुष्य, नारक, देव, तिर्यंचं रूप चार गतियों से युक्त है। संसार के सभी प्राणी विविध रूपों में इन्हीं चार गतियों में परिभ्रमण करते हैं। अपने-अपने कर्मों के अनुसार वे उत्पन्न होते हैं, देहावसान प्राप्त करते हैं, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों को झेलते हैं। यह अनादि काल से चला आ रहा है । भवचक्र बड़ा विषम एवं दुर्गम है। जो अपना वास्तविक स्वरूप न समझकर धर्मानुप्राणित नहीं होता वह इसी चतुर्गतिमय जागतिक जंजाल में अटका रहता है । संसारानुप्रेक्षा संसार के स्वरूप का बोध कराते हुए आत्मस्वरूपोन्मुख बनने की प्रेरणा प्रदान करती है । धर्मध्यान द्वारा आत्मोत्थान के इस मौलिक दर्शन का उत्तरवर्ती आचार्यों ने अनेक रूपों में विस्तार किया, नये-नये आयाम इसमें जोड़े गए जिनका आकलन शोधप्रबन्ध में आगे किया जायेगा । शुक्लध्यान : AD यह ध्यान आत्मा की सिद्धि का मूलमंत्र है । वैराग्य बल से धारावाही मनोयोगपूर्वक चिन्तन से विषय कषायों का सम्बन्ध सर्वथा पृथक् हो जाता है । शरीर का छेदन-भेदन होने पर भी स्थिर हुआ चित्त लेश मात्र भी चलायमान नहीं होता, मेरु सम अटल रहता है, अपने आत्मस्वरूप, सत्चित् आनन्द को प्राप्त करता है यह शुक्ल ध्यान की स्थिति है। इसके चार भेद हैं : (1) पृथक्त्ववितर्क विचार ( 2 ) एकत्ववितर्क अविचार ( 3 ) सूक्ष्मक्रिय अनिवृत्ति (4) समुच्छिन्न क्रिय अप्रतिपाती स्थानांग सूत्र की वृत्ति में शुक्लध्यान के भेदों के संदर्भ में वितर्क और विचार का विवेचन करते हुए प्रतिपादित हुआ है कि श्रुतावलम्बी विकल्प वितर्क है। विचार का अभिप्राय परिवर्तन है जैसे पूर्वधर मुनि पूर्वश्रुत के अनुसार किसी एक द्रव्या आलम्बन लेकर ध्यान करता है परन्तु उसके किसी एक परिणाम या पर्याय पर वह स्थिर या एकाग्र नहीं रहता, वह उसके विविध परिणामों या पर्यायों पर विचरण करता है । शब्द से अर्थ और अर्थ से शब्द पर विचरण करता है । मन वचन और काय में से किसी एक दूसरे पर संक्रमण करता है, विविध दृष्टिकोणों से उस पर चिन्तन करता है। यह पृथक्त्व वितर्क विचार का स्वरूप है। 29 29. स्थानांग सूत्र (4 / 1 / 247 ) वृत्ति पत्र 191 22 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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