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________________ खण्ड : द्वितीय पृथक्त्ववितर्क विचार : इसमें अर्थ, व्यंजन और योग का विचार किया जाता है। एक शब्द को विचार कर दूसरे शब्द में प्रवृत्त होना शब्द संक्रमण है । एक योग को छोड़कर दूसरे योग में प्रवृत्त होना योग संक्रमण है । एक पदार्थ का विचार कर उसे छोड़ दूसरे पदार्थ में विचार का जाना अर्थ संक्रमण है। इसमें श्रुतज्ञान का आधार लेकर भिन्न - भिन्न दृष्टिकोणों से जड़ - चेतन, मूर्त- अमूर्त, उत्पाद, व्यय, पर्याय, द्रव्यों का चिन्तन-मनन किया जाता है। महर्षि पतंजलि ने ‘योगसूत्र' में सवितर्कसमापत्ति का जो वर्णन किया है 30 वह पृथक्त्ववितर्क विचार शुक्लध्यान से तुलनीय है । वहाँ शब्द, अर्थ और ज्ञान इन तीनों विकल्पों से संकीर्ण सम्मिलित समापत्ति समाधि को सवितर्क समापत्ति कहा गया है। जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम जैन एवं पातंजल योग से सम्बद्ध इन तीनों विधाओं की गहराई में जाने से अनेक दार्शनिक तथ्यों का प्राकट्य सम्भव है। क्षपक एकत्व वितर्क अविचार शुक्लध्यान : बारहवें गुणस्थानवर्ती क्षीणमोही साधक की मनोवृत्ति इतनी स्थिर हो जाती है कि वहाँ न द्रव्य, गुण, पर्याय के चिन्तन का परिवर्तन होता है और न अर्थ, व्यंजन (शब्द) और योगों का ही संक्रमण होता है । किन्तु वह द्रव्य, गुण या पर्याय में से किसी एक के गम्भीर एवं सूक्ष्म चिन्तन संलग्न रहता है और उसका वह चिन्तन किसी एक अर्थ, शब्द या योग के आलम्बन से होता है। उस समय वह एकाग्रता की चरम कोटि पर पहुँच जाता है और इसी दूसरे शुक्लध्यान की प्रज्वलित अग्नि में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्म की सर्व प्रकृतियों को भस्म कर अनन्तज्ञान, दर्शन और बल-वीर्य का धारक सयोगी जिन बन कर तेरहवें गुणस्थान में प्रवेश करता है । - महर्षि पतंजलि द्वारा वर्णित निर्वितर्क समापत्ति एकत्व वितर्क अविचार से तुलनीय है पतंजलि लिखते हैं- जब स्मृतिपरिशुद्ध हो जाती है अर्थात् शब्द और प्रतीति की स्मृति लुप्त हो जाती है । चित्तवृत्ति केवल अर्थमात्र का ध्येय मात्र का निर्भास कराने वाली, ध्येय मात्र के स्वरूप को प्रत्यक्ष कराने वाली होकर स्वयं स्वरूप शून्य की तरह बन जाती है तब वैसी स्थिति निर्वितर्क समापत्ति से संज्ञित होती है । 31 30. योगसूत्र 1.42 31. योगसूत्र 1.43 Jain Education International 23 For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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