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________________ प्राचीन जैन अर्धमागधी वाङ्मय में ध्यान खण्ड: द्वितीय के जीवन में ध्यान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अंग रहा है।25 टीकाकार आचार्य शीलांक ने 'झाणजोगं' पद का विवेचन करते हुए लिखा है कि चित्त का निरोध करना असत् विषयों से उसे रोकना, धर्म का चिन्तन करना आदि को ध्यान कहा जाता है। उसमें मन, वचन एवं शरीर द्वारा विशेष रूप से संलग्न होना, उससे जुड़ना ध्यानयोग है। ध्यानयोग का अच्छी तरह उपादान कर, उसे ग्रहण कर, अकुशल अशुभ योग में - प्रवृत्तियों में जाते शरीर आदि का निरोध कर उसे उस ओर न जाने दे।26 यहाँ ‘झाणजोगं समाहर्ट्स' पद का अर्थ टीकाकार ने चित्त-वृत्ति का निरोध किया है। पतंजलि ने 'योगसूत्र' में साधक द्वारा चित्तवृत्तियों का सम्पूर्णत: निरोध किया जा सके, यह सम्भव नहीं माना है। अत: उनको अशुभ से मोड़कर शुभ चिन्तन पर एकाग्र किया जाता है तब धर्मध्यान की स्थिति बनती है। इसलिए एक मात्र निरोध का विधान व्यावहारिक दृष्टि से क्रियाभ्यास के साथ संगत प्रतीत नहीं होता। स्थानांग सूत्र में ध्यान सम्बन्धी विस्तृत विवेचना : द्वादशांगी का तीसरा अंग ‘स्थानांग सूत्र' है। इसमें संख्या क्रम से विभिन्न विषयों का स्थानों के रूप में विवेचन है। एक-एक पदार्थ का जिसमें वर्णन है वह प्रथम स्थान है। इसी क्रम से उत्तरोत्तर वर्णन हुआ है। इसके चतुर्थ स्थान में चार ध्यानों का विवेचन है। वहाँ उनके प्रकार, लक्षण, आलम्बन और अनुप्रेक्षा का वर्णन हुआ है। ध्यान के चार प्रकार - आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान हैं।27 यहाँ ज्ञातव्य यह है कि यद्यपि आर्त्त और रौद्र ध्यान साधना में अनुपयोगी और विघ्नकारक हैं किन्तु यहाँ उनका जो उल्लेख हुआ है वह ध्यान की अशुभ, शुभ एवं शुद्ध अवस्था को लक्षित कर हुआ है। अशुभ का परित्याग, शुभ और शुद्ध का स्वीकार साधक का लक्ष्य होता है। परित्याज्य या परिहेय वस्तु को भी जानना आवश्यक है। संसार में ज्ञेय, उपादेय और हेय तीन प्रकार के पदार्थ होते हैं, शुभ या अशुभ 25. सूत्रकतांग सूत्र 1.8.26 26. वही, 1.8.26 (शीलांकाचार्य कृत टीका) पृ. 414 27. स्थानांग सूत्र 4.1.60-72 पृ. 222-226 ~~~~~~~~~~~~~~~ 14 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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