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________________ खण्ड : द्वितीय जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम सभी पदार्थ ज्ञेय हैं। उनमें उपादेय वे हैं जो आत्मा का कल्याण करते हैं, हित साधते हैं। हेय वे हैं जो आत्मा को विकारग्रस्त बनाते हैं। यही कारण है कि यहाँ आर्त, रौद्र का भी वर्णन किया गया है ताकि उन्हें जानकर साधक उनका परित्याग करे। आर्तध्यान : त यानी पीड़ा, दु:ख उत्पन्न करने वाला आर्तध्यान है। आर्त्तपरिणामों में होने वाला चिन्तानिरोध आर्त्तध्यान है। यह चार प्रकार का है ___ 1. अमनोज्ञ (अप्रिय) वस्तु का संयोग होने पर उसके दूर करने का बारबार चिन्तन करना। 2. मनोज्ञ (प्रिय) वस्तु का संयोग होने पर उसका वियोग न हो, ऐसा बारबार चिन्तन करना। 3. आतंक (घातक रोग) होने पर उसके दूर करने का बार-बार चिन्तन करना। 4. प्रीतिकारक, कामभोग का संयोग होने पर उसका वियोग न हो, ऐसा बारबार चिन्तन करना। सांसारिक व्यक्ति का प्राय: यही चिन्तन रहता है कि उसे जीवन में ऐसा कुछ न देखना पड़े जो उसके लिए अप्रियकर हो। किन्तु कर्मपरिणामवश कब क्या स्थिति आ जाये, कोई नहीं जानता। जब किसी को अप्रिय वस्तु, स्थिति प्राप्त हो जाती है तो वह अत्यन्त व्याकुल हो उठता है और बार-बार उसके मन में यही आता है कि वह इस स्थिति से कैसे छूटे ? वह अत्यधिक अर्ति-आन्तरिक पीड़ा से कुंठित होता हुआ एक मात्र उसी में अपने मन को एकाग्र किये रहता है। यह एकाग्रता तो है किन्तु इसका लक्ष्य दूषित और विकृत है। अत: यह आत्मा के लिए अश्रेयस्कर है, अप्रशस्त है। ___ इसी प्रकार जब किसी को मनचाही वस्तु प्राप्त हो जाती है तब वह निरन्तर यही सोचता रहता है कि वह उससे कभी पृथक् न हो। क्योंकि प्रिय वस्तु का सदा संयोग बना रहे, यह हर कोई चाहता है। उसके मन में यह भीति बनी रहती है कि कहीं यह स्थिति चली न जाय। यह ध्यान भी पहले की भाँति आत्मा का अकल्याण करता है। शरीर में कब क्या रोग उत्पन्न हो जाय, कब कौन सी विपत्ति आ पड़े, कौन ~~~~~~~~~~~~~~~ 15 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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