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________________ प्राचीन जैन अर्धमागधी वाङ्मय में ध्यान - खण्ड : द्वितीय उच्चावस्था का द्योतक है - "नास्ति उत्तरं यस्मात् तद् अनुत्तरम्' अर्थात् जिससे आगे बढ़कर और नहीं होता उसे अनुत्तर कहा जाता है। भगवान महावीर की ध्यानआराधना अनुत्तर कोटि की थी। सूत्रकृतांग सूत्र के संस्कृत टीकाकार महान् विद्वान् आचार्य शीलांक ने इस गाथा की व्याख्या करते हुए भगवान महावीर के ध्यान का विशेष रूप से विश्लेषण किया है। उन्होंने लिखा है कि जिससे उत्तर, प्रधान या श्रेष्ठ अन्य धर्म नहीं होता वैसे अनुत्तर धर्म को भलीभाँति प्ररूपित कर, प्रकाशित कर भगवान उत्तम ध्यान ध्याते थे। भगवान को जब ज्ञान-सर्वज्ञत्व, या केवलज्ञान उत्पन्न हो गया तब वे योगनिरोध काल में काययोग का निरोध करते हुए शुक्ल ध्यान के तृतीय भेद सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान में संलग्न होते थे। जब योगों का निरोध हो गया तब वे शुक्ल ध्यान के चौथे भेद व्युपरतक्रियानिवृत्ति में अभिरत हुए थे। आगमकार इसी तथ्य का दिग्दर्शन कराते हए प्रतिपादन करते हैं कि जो ध्यान अत्यन्त उज्ज्वल-निर्मल, स्वच्छ पदार्थ की तरह शुक्ल है, जिससे दोष अपगत हैं, जो निर्दोष है, सुवर्ण के सदृश निर्मल है अथवा जो अपगंड अपद्रव्य रहित जल के फेन - झाग की ज्यों अत्यन्त विशद है, मल रहित है, शंख एवं चन्द्र के समान एकान्त रूप से अवदात शुक्ल तथा शुभ्र है; वह शुक्लध्यान कहा जाता है। भगवान शुक्ल ध्यान के उक्त दो भेदों की साधना में निरत रहते थे।23 सूत्रकृतांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के 'वीर्य' नामक अष्टम अध्ययन के अन्त में पण्डितवीर्य, प्रज्ञाशील, आत्मपराक्रमी साधक के आदर्श अनुप्राणित जीवन के सम्बन्ध में गाथाएँ आयी हैं जो बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। दूसरी गाथा के पहले दो चरण "झाणजोगं समाहृटुं कायं विउसेज्ज सव्वसो" साधक की ध्यान परायणता के द्योतक हैं। कहा गया है कि साधक ध्यानयोग को सम्यक् आहृत कर, स्वायत्त कर पूर्णरूपेण अपनी काय का व्युत्सर्ग करे। यहाँ साधक के साधनागत अन्यान्य कर्त्तव्यों का उल्लेख करने के साथ उसके ध्यानयोगी होने का विशेष संकेत है। ध्यान के सम्यक् ग्रहण करने का तात्पर्य यह है कि वह चिर अभ्यास द्वारा ध्यान में परिपक्वता, दृढ़ता, स्थिरता प्राप्त करे और उसमें उतनी ऊर्ध्वगामिता प्राप्त कर ले कि फिर उसे अपनी देह का भी भान न रहे। 23. सूत्रकृतांग 1.6.16 (शीलांकाचार्य कृत टीका) पृ. 355 ~~~~~~~~~~~~~~~ 12 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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