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________________ खण्ड : द्वितीय जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम विकथा में केवल निद्रारूप प्रमाद का ही अन्तर्मुहूर्त पर्यंत उनके द्वारा सेवन किया गया। इसका आशय यह है कि उन्होंने किसी भी अन्य प्रमाद का जरा भी सेवन नहीं किया। आचारांग सूत्र' के नवम अध्ययन की 15वीं गाथा की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि भगवान महावीर पेढाल नामक ग्राम में कोल्लाग नामक चैत्य में तीन दिनों के उपवास में थे। वे कायोत्सर्ग की मुद्रा में अवस्थित थे। उनका शरीर आगे की ओर कुछ झुका था। उनकी दृष्टि एक पुद्गल पर निमेष रहित थी। इस मुद्रा में उन्होंने एक रात्रि महामुद्रा की आराधना की।20 भगवान महावीर के तपश्चरण की यह विशेषता थी कि वे अत्यधिक कठोर तप करते हुए भी अपनी समाधि अर्थात् उच्चतम ध्यानावस्था के प्रति सदैव सजग रहते थे।21 सूत्रकृतांग सूत्र में ध्यान संबंधी निर्देश : __ द्वादशांगी के द्वितीय अंग सूत्रकृतांग सूत्र' के षष्ठ अध्ययन के 'महावीरत्थवो' (वीरत्थुइ) में भगवान महावीर के ध्यान का संकेत रूप में जो उल्लेख हुआ है वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। भगवान धर्मध्यान की परिसीमाओं को पारकर शुक्ल ध्यान की आराधना में संलग्न थे। “शोधयत्यष्टप्रकारकर्ममलं शुचं वा क्लमयतीति शुक्लम्" जो कर्ममल का शोधन करने वाला है तथा शोक को और विषाद को मिटा डालता है उसे शुक्ल ध्यान कहा जाता है। भगवान महावीर की ध्यान आराधना में शुक्लध्यान के ऐसे ही स्वरूप का दर्शन होता था। जब बाह्य अभिनिवेश मिट जाते हैं तो मन में चंचलता उत्पन्न होने के हेतु नष्ट हो जाते हैं। मन स्थिरता प्राप्त कर लेता है। यही कारण है कि भगवान महावीर के ध्यान को हंस, फेन, शंख और इन्दु के समान परम शुक्ल एवं अत्यन्त उज्ज्वल बताया गया है। वे अनुत्तर ध्यान के आराधक कहे गये हैं।22 अनुत्तर शब्द परम 20. आचारांग चूर्णि पृ. 300/301 21. आचारांग वृत्ति पत्र 312 22. सूत्रकृतांग सूत्र 1.6.16 युवाचार्य श्री मधुकर मिश्रीमल जी म. ~~~~~~~~~~~~~~~ 11 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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