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________________ ३५ राजा भोज द्वारा आए हुए पुरुषोंसे इस बातको सुनकर धनपाल अपने वतनके पक्षपातसे तुरंत धारानगरी तरफ जानेको तैयार हो गया और राजा भोजके दरबारमें आ पहुंचा. जब राजा भोजने कवि धनपाल को अपने सामने आते हुए देखा तब राजा स्वयं खडे होकर उसको लेनेके लिए चलकर के उसके सामने गया और उस धीनिधि धनपाल कविसे खूब स्नेहसे भेंट करके राजा बोला कि मेरे अविनयको क्षमा करें. तब धनपालकी आंखों में आंसू आ गएं और कवि बोला कि मैं ब्राह्मण हूं तो भी निःस्पृह हूं तथा जैनधर्मकी आराधना कर रहा हूं. अब मैं इन राजसभाकी झंझटोसे मान वा अपमानसे उदासीन हो गया हूं. अतः मेरे चित्तमें इनका कोई असर नहीं हैं. फिर राजाने कहा कि आपमें ऐसी उदासीनता आ गई है सो तो ठीक है, परंतु आपके जीते जी भोजकी सभाकी पराजय कैसे हो सकती है ? भोजकी सभाकी पराजय मानो आपकी ही पराजय है - तब कविने राजाको कहा कि महाराज ! आप खेद न करें, उस कौल भिक्षुका कल प्रातःकालमें ही पराजय हो जायगा. "" ११ कविका संमान राजा मुंजने धनपालको 'कूर्चाल सरस्वती' तथा 'सिद्ध सारस्वत' ऐसे दो बिरुद दिए थे. इस बातका निर्देश प्रबंध में है. १२ लंकामें पहुंचने के लिए हनुमानने जो सेतु बांधा था, उस पर कोई पुरानी प्रशस्ति थी, ऐसा उल्लेख प्रबंध में है. उस प्रशस्तिको लेनेके लिए राजा भोजने अपने कुशल आदमियों को लंकामें भेजा था. प्रबंधमें लिखा है कि प्रशस्ति श्रीहनुमानकी बनाई हुई थी. जिन आदमियोंको प्रशस्ति लेनेके लिए भेजा गया था वे तैरने में बड़े कुशल थे, तथा समुद्रमें जाने पर उन्हें आँखोंसे बराबर सव कुछ दिखाई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001708
Book TitlePaia Lacchinammala
Original Sutra AuthorDhanpal Mahakavi
AuthorBechardas Doshi
PublisherR C H Barad & Co Mumbai
Publication Year1960
Total Pages204
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Dictionary
File Size9 MB
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