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________________ धनपालस्ततः साश्रुरवादीत् ब्राह्मणोऽप्यहम् । निःस्पृहो जैनलिङ्गश्चावश्यं तद्वतसस्पृहः ॥२७८॥ भवेद् मानाऽपमानो हि नादासीनचेतसि ॥२७९।। त्वयि जीवति भोजस्य सभा यत् परिभूयते ॥२८०॥ पराभवस्तवैवाऽयम् इति श्रुत्वा कृतिप्रभुः । प्राह मा खिद्यताम् , भिक्षुः अक्लेशात् जेष्यते प्रगे" ॥२८१॥. -(प्रभावकचरित्र पृ० २४१-२४२) अर्थात् धनपालको भोज कहता है कि " महाराजा मुंज के आप बडे पुत्र हैं, मैं छोटा पुत्र हूं, क्या इस छोटे पुत्रका वचन गण्य-मान्य हो सकता है ? पहिले बडे महाराजाने-मुंजने-अपनी गोदमें बैठा कर आपको 'दाढीवाली सरस्वती'-' कूर्चालसरस्वती' इस प्रकार विरुद दिया है. भाग्ययोगसे अब तुमने हमारा-हम बूढोका-तथा हमारे राज्यका त्याग कर दिया है. अवंतिदेश आपका है, अब उसकी पराजय हो वा जय हो इस बातको आप समझें. जिसकी आजतक किसीसे पराजय नहीं हो सकी ऐसी धारानगरीकी पंडितसभाकी पराजय करके यह कौलमतका तांत्रिक परदेशी पंडित कल चला जायगा. अब यह परिस्थिति आपके लिए अच्छी है वा विरूप-बुरी है यह बात आप स्वयं समझ लें. ___अब आपको इससे अधिक कहना मैं उचित नहीं जानता. सामान्य पुरुष भी इस बातको स्वयं समझ सकता है कि इस मौके पर तो जाना ही चाहिए-दूसरी बात नहीं हो सकती. आप तो बडे चतुर हैं, अतः जैसा उचित समझें करें. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001708
Book TitlePaia Lacchinammala
Original Sutra AuthorDhanpal Mahakavi
AuthorBechardas Doshi
PublisherR C H Barad & Co Mumbai
Publication Year1960
Total Pages204
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Dictionary
File Size9 MB
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